मेरे साथी:-

Saturday, June 25, 2011

महँगाई से मोहब्बत

आज हर तरफ है छाई महँगाई,
हर एक के उपर आज आफत है आई,
महँगाई में ही सर्वोच्चता का दीदार हो गया,
ये सोच के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

हर किसी के होठों पे बस इसका नाम है,
महँगाई खाश है बाकि सब आम है,
महँगाई के बिना चल पाना दुस्वार हो गया,
ये देख के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

सरकार के नीति का ही कुछ गोलमाल है,
लफड़ा करुँ तो ये अपने ईज्जत का सवाल है,
हाथ खड़े करके ही अपना जीवन साकार हो गया,
इसलिए तो महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

परेशान तो हैं क्योंकि सबके बढ़ते दाम हैं,
पर क्या करें हम तो एक इंसान आम हैं,
सी नहीं सकता इसलिए जख्मों पे निसार हो गया,
ये सोच के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

सबके लिए मेरे पास एक राय है,
अगर आपके खर्च है ज्यादा और कम आय है,
आप भी कहो महँगाई का सबको खुमार हो गया,
आज से महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

Friday, June 24, 2011

मजा कुछ और है !!

किताबें तो पढ़ के बहुत आनन्द आता है,
पर आँखे बंद कर मन की किताब पढ़ने का मजा कुछ और है ।

बाहर तो लोग हजारों से मिल लेते हैं,
पर अंतरआत्मा से साक्षात्कार का मजा कुछ और है ।

रोशनी का लुत्फ तो बहुतेरे उठाते हैं,
पर अंधेरे में स्वयं की पहचान करने का मजा कुछ और है ।

बाहरी सुन्दरता को देख हर कोई है मुस्कुरा उठता,
पर भीतरी सौन्दर्य को परख लेने का मजा कुछ और है ।

औरों पे अट्टाहस तो अकसर ही करते हम,
पर अपने आप पे थोड़ा हँस लेने का मजा कुछ और है ।

अपनों का सहायक बन पुलकित होते हम,
पर एक असहाय को सहाय देने का मजा कुछ और है ।

नींद में तो ख्वाबों का पुलिन्दा सा बँध जाता है,
पर जागती आँखों से स्वप्न देख लेने का मजा कुछ और है ।

प्रेम रस से सराबोर प्रेमी-प्रेमिका हैं फिरते,
पर अपने ईष्टदेव से भक्ति पुर्ण प्रेम करने का मजा कुछ और है ।

अपनी तो हजारों ईच्छा पूरी कर लेते हैं हम,
पर माँ-बाप के अरमान पूरा कर देने का मजा कुछ और है ।

अपनी जरुरत के लिए जंगल का जंगल उड़ा देते हैं हम,
पर प्यार से एक पेड़ लगा जाने का मजा कुछ और है ।

भव्यता को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हम,
पर हृदय को भव्य बना लेने का मजा कुछ और है ।

जिन्दगी की अमिट साख पे मर ही मिटते हम,
पर जिन्दगी को जिन्दगी बना लेने का मजा कुछ और है ।

Monday, June 20, 2011

कवि हृदय मेरा

बचपन में जब नासमझ था,
काव्य का मुझको क्या समझ था,
गुप्त संसार में पड़ा हुआ था,
ये कवि हृदय मेरा ।

बीत गए अनमोल पल,
खेल-कूद में गया निकल,
बाल मन में जाग न पाया,
ये कवि हृदय मेरा ।

तब भी तो मै ठाठ में था,
शायद कक्षा आठ में था,
एक शख्स ने जगा दिया,
सुप्त कवि हृदय मेरा ।

हिन्दी के थे शिक्षक सख्त,
नाम था उनका राम जी भक्त,
पानी डाल वे सींच गए,
ये कवि हृदय मेरा ।

फिर तो जैसे ललक उठी,
भावनाएँ भी धधक उठी,
झर-झर काव्य बहाने लगा,
ये कवि हृदय मेरा ।

समय के साथ मैं चलता रहा,
पढ़ाई के साथ ही पलता रहा,
पर धीमे-धीमे धीमा पड़ा,
ये कवि हृदय मेरा ।

दिल में तो एक ओज-सा था,
पर पढ़ाई का बोझ-सा था,
शिक्षा संग न चल पाया,
ये कवि हृदय मेरा ।

उच्च शिक्षा की बारी आई,
अभियंत्रण में हाथ लगाई,
किताबों बीच ही दबा रहा,
ये कवि हृदय मेरा ।

सेमेस्टरों में धँसा रहा,
परीक्षाओं में फँसा रहा,
साहित्य पटल पर चमक न पाया,
ये कवि हृदय मेरा ।

अभियंता बन निहाल हुआ,
शादी कर खुशहाल हुआ,
पर उपेक्षित रह गया,
ये कवि हृदय मेरा ।

जिम्मेदारी आज बुझ रहा हूँ,
समय की कमी से जूझ रहा हूँ,
पर आशा है सुप्त न रहे,
ये कवि हृदय मेरा ।

घर और नौकरी निभाना है,
जिन्दगी को भी भुनाना है,
सब के साथ बस जागृत रहे,
ये कवि हृदय मेरा ।

रचता रहूँ है कामना,
लेखनी को दूँ आराम ना,
पुष्ट और संतुष्ट रहे,
ये कवि हृदय मेरा ।

नहीं हूँ मैं कवि,
पर दिल में काव्य की है छवि,
भावनाओं संग छलक है पड़ता,
ये कवि हृदय मेरा ।

Thursday, June 16, 2011

शादी की सालगिराह मुबारक हो

'शा'श्वत है इस जग में आपका प्रम,
'दी'पक के समान उज्ज्वल भी है;
'की'मत आँकना है अति दुष्कर,
'सा'मर्थ्य तो इसमे प्रबल ही है ।
'ल'हू के रग-रग में है व्याप्त,
'गि'रि सम हरदम अटल भी है ;
'रा'त्रि के धुप्प तिमिर में भी,
'ह'मेशा चन्द्र सम धवल भी है ।
'मु'मकिन नहीं यह राह बिन आपके,
'बा'तों से सिर्फ कुछ कह नहीं सकता;
'र'हे ये साथ यूँ ही बना हुआ,
'क'लम से ज्यादा कुछ लिख नहीं सकता ।
'हो' ऐसा कि यह दिन यूँ ही हर बार आता रहे ।

इस कविता के प्रत्येक पंक्ति का पहला अक्षर मिलाने पर-"शादी की सालगिराह मुबारक हो" )

(यह कविता हमारी शादी की वर्षगाँठ पर मेरी जीवन साथी 'मानसी' को समर्पित ।)

Saturday, June 11, 2011

फूलों की तरह हँसो

फूलों की तरह हँसो, औरों की मुस्कान तू बन,
धन से तुम गरीब ही सही, दिल से ही धनवान तू बन ।

रात देख भयभीत न हो, सुबह होगी इंतजार तो कर,
दुनिया तुझसे प्यार करेगी,औरों से तू प्यार तो कर ।

पर्वत से भी राह मिलेगा, थक कर बस यूँ हार न तू,
तलाश ही ले तू अपनी मंजिल, मन को अपने मार न तू ।

जीत तुझको भी मिलेगी, राह पे अपने चल निकल,
"दीप" दिखा तू औरों को, राह भी तेरा हो उज्ज्वल ।

Thursday, June 9, 2011

उसने एहसान कर दिया

आकर मेरी जिंदगी में उसने एक एहसान कर दिया,
मैं तो था एक अदना प्राणी उसने एक सुलझा इंसान कर दिया ।

सुबह से लेके शाम तक मेरे ही फिक्र में रहती वो,
गम को जीवन में चंद लम्हों का मेहमान कर दिया ।

भटक रहा था नभ में बिना किसी लक्ष्य को लिए,
लक्ष्य देकर मुझको कर्म को मेरा ईमान कर दिया ।

गुलजार कर दिया उसने मेरे हर एक लम्हे को,
हर एक पल खुशियों से मेरा मिलान कर दिया ।

हर एक जिंदगी में मैं उससे ही मिलता रहुँ,
मेरी जिंदगी में वो रहे रब से ये एलान कर दिया ।

भगवान का शुक्रगुजार हूँ वो मुझको है मिली,
आकर मेरी जिंदगी में उसने एक एहसान कर दिया ।

Friday, June 3, 2011

आज के लोग

नकाब पे नकाब लगाते हैं लोग,
अपनी असल पहचान छुपाते हैं लोग,
अंदर से वो होते कुछ और ऐ "दीप",
और बाहर से कुछ और दिखाते हैं लोग ।

जाने कितने ही रिश्ते बनाते हैं लोग,
पर कितने रिश्ते निभाते हैं लोग,
"दीप" कहे लोग होशियार हो चले,
काम निकल जाने पे भूल जाते हैं लोग ।

वादे पे वादे किये जाते हैं लोग,
उन वादों से अकसर मुकर जाते हैं लोग,
भरोसा आखिर करे तो किसपे ऐ "दीप",
भरोसे तो अकसर तोड़ जाते हैं लोग ।

इंसानों को ही अकसर सताते हैं लोग,
दुश्मनी भी शान से निभाते हैं लोग,
"दीप" कहे इंसान ही इंसान का दुश्मन,
इंसान से शैतान भी बन जाते हैं लोग ।

अपनी गलतियाँ अकसर छुपाते हैं लोग,
पर औरों पे ऊँगली उठाते हैं लोग,
अपने गिरेबान में कोई झाँकता नहीं ऐ "दीप",
और गलतियों का पुलिंदा बना जाते हैं लोग ।

प्रकृति की कृति बदल जाते हैं लोग,
भगवान को धर्मों में बाँट जाते हैं लोग,
ताक में रखकर मानवता को "दीप",
खुद को ही ईश्वर समझ जाते हैं लोग ।

Sunday, May 29, 2011

इंसान तू खुद को पहचान

पहचान उनकी होती है ऐ "दीप" जो कि महान हैं,
हम तो बस एक अदना सा इंसान हैं ।

पर हम भी किसी के दिल के बादशाह हैं,
अपनी अलग कायनात के शहंशाह हैं ।

खुश हूँ कि धरातल पर का एक इंसान हूँ,
भगवान की नियति का कद्रदान हूँ ।

जिन्दगी तो कुछ क्षणों की मेहमान है,
सफल वही जो झेलता तूफान है ।

मानव होने का मुझको गुरुर है,
परहितकारी बनूँ ये सुरुर है ।

अपनों का पेट भर लेता हर जीवित जान है,
मनुष्य वही पर अश्रु में जिसके प्राण हैं ।

हर किसी से किसी न किसी को आस है,
इसलिए हर इंसान अपने आप में खास है ।


बड़ा वो नहीं जिसके पास बहुत ज्ञान है,
महान तो वो है जिसे खुद की पहचान है ।

(शीर्षक का सुझाव-पूनम श्रीवास्तव)

Friday, May 27, 2011

नेता बन जाते तो...

संसद में हंगामा हम भी खुब मचाते,
उद्घाटन समारोह में हम भी खुब जाते,
हम तो अंतर्मुखी बन घर में बैठ गए,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

भाषणबाजी में दो कदम आगे बढ़ जाते,
आरोप प्रत्यारोप हम भी खुब लगाते,
माँ ने कहा बेटा अच्छा इंसान बन,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

झुठे वादे कर मूर्ख हम भी खुब बनाते,
चुनाव जीतकर जनता के पास भी न जाते,
गुरुजी ने सिखाया था झुठ नहीं बोलना,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

विदेश भ्रमण का संयोग हम भी कुछ लगाते,
बाहुबलि बन हर तरफ रौब हम जमाते,
जमीर ने कहा सदा भला काम करना,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

लाल बत्ती लगा गाड़ी हम भी खुब दौड़ाते,
बड़े-बड़े अफसरों को हम भी पीट आते,
अंतर्मन ने कहा कभी दिखावा नहीं करना,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

स्विस बैंक में खाता हम भी एक खुलवाते,
काली कमाई को उसमे आराम से छुपाते,
'काला धन राख समान' सीखा है हमने,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

दो-एक बार भले जेल भी हम जाते,
पैसों के बल पे अपनी ईज्जत हम बचाते,
पिताश्री ने बेटे को इंजीनियर बना दिया,
वर्ना नेता बन जाते तो हम भी खुब कमाते ।

Tuesday, May 24, 2011

हर शख्स दिल का सहारा नहीं होता

राह-ए-जिन्दगी में करोड़ों से होती है मुलाकात,
ऐ "दीप" हर शख्स दिल का सहारा नहीं होता ।
समन्दर में चाहे जिस ओर मोड़ लो कश्ती,
अफसोस! हर तरफ एक किनारा नहीं होता ।
चंद लोग हर कदम पे चलते साथ-साथ,
सब लोग के मरजी पे वश हमारा नहीं होता ।
चंद लोग ही सफर को आसाँ हैं करते,
हर कोई दिल-ए-गुलजार तुम्हारा नहीं होता ।
सफर में गर कोई छोड़ देता है हाथ,
चंद साथ के छुटने से कोई बेसहारा नहीं होता ।
निकाल लो चाहे झील से कुछ पानी,
उस पानी के लिए झील कभी बेजारा नहीं होता ।

Wednesday, May 18, 2011

भ्रष्ट पच्चीसा

                भ्रष्ट समाज का हाल मैं,       तुमको रहा सुनाय |
                भूल भयो तो भ्रात, मित्र, झापड़ दियो लगाय    ||

                ज्यों सुरसा का मुख बढे,      वैसो फैलत जाय |
                हनुमान की पूंछ सम, अंत न इसका भेन्ताय ||

देश की दुर्गत हाल भई है      | जनता-जन बेहाल भई है ||
बसते थे संत नित हितकारी | आज पनपते भ्रष्टाचारी |१|

राजनीति व नेता, अफसर    | ढूंढ़ रहे सब अपना अवसर    ||
मधुशाला में जाम ज्यों होता | व्यभिचार अब आम यूँ होता |२|

ज्यों बालक फुसलाना होता | वैसा घुस खिलाना होता        ||
एक कर्म नहीं आप ही होता | बिन पैसा सब शाप ही होता |३|

काम चाहिए अगर फटाफट    | जेब भरो तुम यहाँ झटाझट ||
बिन पैसा पानी भी न मिलता | पैसों से सरकार भी चलता |४|

जब हो सब यूँ भ्रष्टाचारी      | तब पैसों की महिमा प्यारी ||
सोकर चलती तंत्र सरकारी | गर्व करो ये राज हमारी     |५|

लोकपाल बिल है लटकाई | कई की इससे सांशत आई ||
देशभक्त बदनाम हो चलते | निजद्रोही निज शान से फलते |६|

गाँधी भी निज नेत्र भर लेते | गर देश दशा दर्शन कर लेते ||
कह जाते मैं नहीं हूँ बापू      | भला होई तुम मार दो चाकू |७|

ऐसे न था सोच हमारा      | देश चला किस राह तुम्हारा ||
यह नहीं सपनों का भारत | खो गया अपनों का भारत |८|

राज्य, देश सब एक हाल है | भ्रष्टों का यह भेड़ चाल है   ||
है हर महकमा बेसहारा      | भ्रष्ट ने सबमे सेंध है मारा |९|

फ़ैल चूका विकराल रूप है | ज्यों फैला चहुँओर धुप है      ||
जस जेठ की गर्मी होती    | तस तापस ये भ्रष्ट की नीति |१०|

जो समझे ईमान धर्म जैसा | वो मेमना श्वानों मध्य जैसा ||
सत्य मार्ग पे जो चल जाये | जग में हंसी पात्र बन जाये  |११|

सच्चों का यहाँ एक न चलता   | गश खाकर बस हाथ ही मलता ||
जो ध्रूत चतुर चालाक है बनता | उसका ही संसार फल-फूलता |१२|

अपना है यह देश निराला | चाँद लोगों ने भ्रष्ट कर डाला     ||
लोग स्वार्थी हो रहे नित   | को नहीं समझे औरों का हित |१३|

स्वार्थ ही सबको भ्रष्ट बनाता | स्वार्थ ही सब कुकर्म करता    ||
स्वार्थ है सबके जड़ में व्याप्त | स्वार्थ ख़तम हर भ्रष्ट समाप्त |१४|

महंगाई का अलग तमाशा   | बीस कमाओ खर्च पचासा ||
घर का बजट बिगड़ता जाये | चीर निद्रा में राजा धाये  |१५||

महंगाई अम्बर को छूता    | धन, साधन कुछ नहीं अछूता ||
जन-जन ही बेहाल हुआ है | दो-एक मालामाल हुआ है    |१६|

अब धन निर्धन क्या कमाए | क्या खिलाये क्या वह खाए           ||
महंगाई ने कमर है तोड़ी      | आम जन की नस-नस है मरोड़ी |१७|

सरकारी धन अधर में लटका | बीच-बिचौलों ने सब झटका ||
एक नीति न धरा पर आई     | कागज में होती है कमाई   |१८|

सरकारी हैं बहुत योजना        | सब बस अफसर के भोजना  ||
जो नित नीति के योग लगाते | स्वयं ही उसका भोग लगाते |१९|

मन मानस पर ढूंढ है छाई       | देश को खुद है उबकी आई            ||
स्वयं समाज है जाल में उलझा | राजनीति एक खेल अन-सुलझा |२०|

पढ़ ले जो यह भ्रष्ट पचीसा | निज मन नाचे मृग मरीचा   ||
भ्रष्टाचार जो मिटाने जाई        | खुद अपनी लुटिया है डूबाई |२१|

मत समझो इसे लिट्टी चोखा | दिन दुनिया का खेल अनोखा  ||
गहराई में उतर चूका यह        | रक्त-रक्त तक समा चूका यह |२२|

जम चूका है बा यह बीमारी | फ़ैल रहा बनके महामारी        ||
कहीं तो है यह भूल हमारी   | जिम्मेदारी लें हम सब सारी |२३|

जन-जन को ही बदलना होगा   | हर भारतीय को सुधरना होगा ||
सब अपना चित निर्मल कर लें | गंगा सम मन निर्मल कर लें |२४|

भ्रष्टाचार न हो नाग हमारा    | ऐसे देश जाये जाग हमारा        ||
कहे "प्रदीप" ये राग हमारा   | स्वच्छ समाज हो भाग हमारा |२५|

            सुन्दर स्वप्न देख लिया, हो भ्रष्टाचार विमुख        |
            देश हमारा यों रहे ज्यों,   गाँधी स्वप्न सन्मुख ||

चौखट

चौखट के भीतर का जीवन जीने को मजबूर थी जो,
सहमी हुई सी, दर से दबकर जीने को मजबूर थी जो |

पहले पापा के इज्ज़त को चौखट भीतर बंद रहना,
शादी बाद सासरे में चौखट का उसपे पाबंद रहना |

सपना कोई देख लेना उसके लिए गुनाह होता था,
जीवन जीने का लक्ष्य उसका बच्चे और निकाह होता था |

वो अबला अब बलशाली बन चौखट का दंभ तोड़ चुकी है,
वो नारी स्वयं अपने पक्ष में हवा के रुख को मोड़ चुकी है |

नैनों में चाहत भी होती लक्ष्य भी इनके अपने होते,
चौखट और वो चाहरदीवारी अब तो बस वे सपने होते |

कोई काम नहीं धरा में इनके बस की बात नहीं जो,
कोई बात नहीं रहा अब इनके हक की बात नहीं जो |

नीति से राजनीति तक हर क्षेत्र में इनकी साझेदारी है,
देश रक्षा से रॉकेट साईंस तक हर चीज में भागेदारी है |

चौखट के भीतर-बाहर, हर तरफ सँभाले रखा है,
अबल से सबला बनकर भी मर्यादा भी सँभाले रखा है |

हर जिम्मा अब अपना इनको खुब निभाना आता है,
घर, गाड़ी या देश हो इनको सब चलाना आता है |

पुरुषों से कंधा हैं मिलाती देश की नारी नहीं है कम,
इस आँधी को बाँध के रखले,चौखट में नहीं वो दम |

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-प्रदीप