ये झुकी हुई पलकें,
न जाने क्या कहती है;
लबों की तरह खामोश है,
शायद उनमे कुछ राज है ।
कहती है शायद
रहने दो राज को राज,
आवरण इतनी जल्द न हटाओ,
शायद कुछ खोने का डर भी है इनमे,
कभी लगता कहती है पास आओ ।
ये झुकी हुई पलकें,
हैं सागर को समेटे,
रंजोगम बयाँ करती,
पर फिर भी झुकी रहती ।
हया की चादर में लिपटी,
स्याह की धार में बँधी,
न जाने कितने भेद छुपाये,
तेरी ये झुकी हुई पलकें ।
बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteधन्यवाद सुषमा जी |
Deleteप्यार सी ...प्यारी रचना
ReplyDeleteआभार अंजू जी |
Deleteबहुत बेहतरीन प्रस्तुति' new post...वाह रे मंहगाई...
ReplyDeleteधन्यवाद धीरेन्द्र जी |
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteकल 25/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है, ।। वक़्त इनका क़ायल है ... ।।
धन्यवाद!
आपका आभार सदा जी जो आपने मेरी रचना को इस योग्य समझा |
Deleteबहुत भावपूर्ण रचना...बधाई
ReplyDeleteनीरज
धन्यवाद नीरज जी |
Deleteबहुत सुन्दर भावमयी प्रस्तुति..
ReplyDeleteकैलाश जी आभार |
Deleteबहूत सुंदर ,बेहतरीन गहरे जजबात लिये खुबसुरत रचना है
ReplyDeleteधन्यवाद रीना जी |
Deleteझुकी हुई नजरें कई राज लिए होती हैं |सुन्दर भाव लिए रचना
ReplyDeleteआशा
आपका धन्यवाद आशा जी |
Deleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteधन्यवाद विद्या जी |
Deleteबहुत खूब!
ReplyDeleteसादर
आभार यशवंत जी |
Deleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद महेश्वरी जी |
Deleteये झुकी हुई पलकें,
ReplyDeleteन जाने क्या कहती है,
लबों का तरह खामोश हैं
शायद उनमें कुछ राज़ है।
बहुत खूब.......