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Monday, October 7, 2013

सन्नाटा

मुमकिन है दो लफ्ज़ तुम भी कह दो,
लब मेरे भी थोड़े थिरक जाएँ,
पर बस इतना काफी तो नहीं है;
सन्नाटे का मंजर यहाँ कुछ और ही है,
तेरे-मेरे दो लफ्ज़ मिटा नहीं सकते,
सन्नाटे को यूँ ही हम चीर नहीं सकते;
कह दो उस से जो सुनता है तुम्हे,
वो भी कह देगा ऐसे ही किसी और को,
लाना है बदलाव अगर
या मिटाना है ये सन्नाटा अगर
तो बोलना होगा हममे से हर एक को ही,
चीर अगर देना है अँधेरे को यूँ,
"दीप" होगा जलाना हर एक को ही ।
बात अब ये सिर्फ तेरी या मेरी नहीं है,
मुद्दा है सबका, हाँ हम सबका,
हम, तुम, वो, वो और सारे वो,
मिल जुलके ही भेद पाएंगे इसे ।

11 comments:

  1. बढ़िया प्रस्तुति-

    नवरात्रि की शुभकामनायें-

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  2. बहुत सुन्दर...
    सार्थक विचार...
    अनु

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  3. लाना है बदलाव अगर
    या मिटाना है ये सन्नाटा अगर
    तो बोलना होगा हममे से हर एक को ही,... बिलकुल सही लिखा है आपने

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  4. बहुत सुन्दर एवं सार्थक ..

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  5. बहुत सुंदर उम्दा प्रस्तुति.!
    नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें-

    RECENT POST : पाँच दोहे,

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  6. बहुत सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति,नवरात्रि की बहुत बहुत शुभकामनायें.

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  7. बिल्कुल सही तभी बदलाव संभव है....
    सार्थक रचना !!

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  8. बहुत सुंदर .सार्थक रचना .

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  9. बहुत बढ़िया प्रस्तुति .
    नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ

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