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Thursday, October 24, 2013

"आशा किरण"

आँखों की गहराइयों में, मधुर स्वप्न लेकर;
इस अँधेरी दुनिया में, चलने चला हूँ मैं |

अँधेरे मन में, आशा किरण लेकर;
कष्टों की गोद में, पलने चला हूँ मैं |

अंतर्मन की आवाज, सुनता नहीं है कोई;
सुन लिया है मैंने, समझने चला हूँ मैं |

जानता हूँ ये जीवन, संघर्ष है लेकिन;
संघर्ष से संघर्ष, करने चला हूँ मैं |

आलोक का अस्तित्व, परे हो गया है;
पूंज की पर खोज, करने चला हूँ मैं |

भगवान् की कृति, इस संसार में कोई;
इंसानियत है भी, देखने चला हूँ मैं |

देखा लिया है मैंने, करीब से फिर भी;
जीवन के सफ़र में, बढ़ने चला हूँ मैं |

चारों तरफ है देखा, बस तम का वर्चस्व;
पर आशा की किरण, लाने चला हूँ मैं |

इस अँधेरी दौड़ में, खो गया हूँ शायद;
अस्तित्व की पहचान अब, करने चला हूँ मैं |

कठिनाइयों को देख, न हुआ कभी नत मैं;
मृत पथ में प्राण, अब भरने चला हूँ मैं |

सोच मेरा ऐसा, दिवा-स्वप्न जैसा;
उसको भी साकार करने चला हूँ मैं |

चिंता सर से विन्ध, हो गया हताहत;
पर वेदना को पर, हरने चला हूँ मैं |

दिख रहे दो नयन, लिए जल की छलक;
नयनों का वो जल, सोखने चला हूँ मैं |

आँखों से प्रतिपल, अश्रु की ही धारा;
मोतियों का बहाव, रोकने चला हूँ मैं |

पड़ रही है मुझ पर, आशा भरी नजर;
निराशा न मिले, सोचने चला हूँ मैं |

प्रेम-पथ में शत-शत, कांटे बिछे पड़े;
पर राह पर उसकी, चलने चला हूँ मैं |

ये पथ है न रक्षित, न है जाना सरल;
अगम्य पथ पर अजेय, होने चला हूँ मैं |

गहराई कभी न देखी, इस दरिया की लेकिन;
चाहत में राहत की, कूदने चला हूँ मैं |

कह गए हैं लोग, मंजिल है निराशा;
मुश्किल ये वजन पर, ढोने चला हूँ मैं |

अंतर से निकली उसकी, करुण पुकार सुन;
वर्णित का वरण, करने चला हूँ मैं |

चार दिन का जीवन, चार क्षण का सुख;
ये चार पल की खुशियाँ, समेटने चला हूँ मैं |

वक़्त के ही साथ-साथ, हैं सब चल रहे;
वक़्त की रफ़्तार अब, पकड़ने चला हूँ मैं |

पथ में "प्रदीप", बहुत दूर है लेकिन;
देखकर उसको ही, छूने चला हूँ मैं |

दुःख के तरु में, सुख का एक फल;
उस फल को पाने, चढ़ने चला हूँ मैं |

थक कर न हारे, पथिक कोई पथ में;
आशा का प्रलोभन, देने चला हूँ मैं |

शिला-सी जमी हुई, मनःस्थिति सबकी;
भ्रम मैं अब सबका, तोड़ने चला हूँ मैं |

वृन्तों का है झुण्ड, छाया नहीं फिर भी;
छाँव दे वो पौधा, लगाने चला हूँ मैं |

दिक्भ्रांत होकर, मौत में हैं जीते;
सत्य मार्ग पर वापस, आने चला हूँ मैं |

अंत तक पथ में, निराश ही मिले;
आशा का न दामन, छोड़ने चला हूँ मैं |

तम का ये बदल, छंटे न या छंटे;
पर आशा की किरण, लाने चला हूँ मैं |

22.02.2004

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    साझा करने के लिए आभार।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।

    ReplyDelete
  3. आशा की किरण लाने का अनेक धन्यवाद , सुंदर कविता।

    ReplyDelete

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