(मेरी डायरी से- ये मेरी दूसरी कविता है जो मैंने तब लिखी थी जब मैं दसवीं कक्षा में था |)
कहने लगे कुछ भी न हुआ,
ये दिल जानता है बहुत कुछ हुआ;
न सोचा कभी था वैसा भी हुआ,
है अधर में कुछ बात ऐसा अटका हुआ |
पेड़ गिरने लगे, जल भी सूखने लगा,
हरियाली न पूछो वह तो मिट सा गया;
फूल भी अब डालों से गिरने लगे,
गिर सपनो को आहत वह करता गया |
एक ऐसा समय था जब थे वे हरे,
हरा था समां दिल भी था कुछ खिला;
ऐसा लगता था जैसे ऐसे ही रहे,
आगे का सफ़र भी मैं चलता चला |
वो मौसम था ऐसा सब थे हँसते हुए,
जरा-सा भी दुःख कहीं भाता न था;
फल भी मैं चखुंगा कुछ दिन है हुए,
ऐसा विश्वास भी था जो हिलता न था |
एक ऐसा हवा का झोंका चला,
पेड़ों से सब पत्तों को लेता चला;
गिर पेड़ों से सपना मिटटी में जा मिला,
कुछ क्षणों में समां धुंधला हो चला |
सब देखते रहे सब ख़तम हो गया,
सारी हरियाली में काला रंग चढ़ गया;
मैं गया जो उन पेड़ों के नजदीक में,
देख दुःख उनका भूल अपना गया |
मिल सकेंगे न फिर इस जग में कभी,
पेड़-पत्ते ऐसे ही जुदा हो गए;
न गलती है मेरी न उसकी सुनो,
प्राण रहते भी पत्तों सा निष्प्राण हुए |
सारे जग में हमेशा ऐसा ही हुआ,
पत्ते-पेड़ों से ऐसे ही झड़ते ही हैं;
दिल की हरियाली भी एक दिन मिटती ही है,
जो मिलते हैं एक दिन बिछड़ते भी हैं |
कथा हरियाली की ऐसे चलती ही है,
पेड़ों का ये हरा रंग भी उड़ जाता है;
परिवर्तन तो दुनिया में होता ही है,
फिर पत्तों को पा पेड़ खिल जाता है |
पेड़ों की छोड़ दो और लोगों की लो,
कोई रोता है तो कभी हँसता भी है;
पर पहला कभी कुछ जो खो जाता है,
लाख मिलने पर भी पहला मिलता न है |
20.04.1999
मैं गया जो उन पेड़ों के नजदीक में,
ReplyDeleteदेख दुःख उनका भूल अपना गया |
बहुत सुन्दर कविता
नई पोस्ट मैं
कथा हरियाली की ऐसे चलती ही है,
ReplyDeleteपेड़ों का ये हरा रंग भी उड़ जाता है;
परिवर्तन तो दुनिया में होता ही है,
फिर पत्तों को पा पेड़ खिल जाता है |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।
कथा हरियाली की ऐसे चलती ही है,
ReplyDeleteपेड़ों का ये हरा रंग भी उड़ जाता है;
परिवर्तन तो दुनिया में होता ही है,
फिर पत्तों को पा पेड़ खिल जाता है |
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति ,,,!
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