मेरे साथी:-

Friday, September 21, 2012

पढ़ना था मुझे

पढ़ना था मुझे पर पढ़ न पाई,
सपनों को अपने सच कर ना पाई;
रह गए अधूरे हर अरमान मेरे,
बदनसीबी की लकीर मेरे माथे पे छाई |

खेलने की उम्र में कमाना है पड़ा, 
झाड़ू-पोंछा हाथों से लगाना है पड़ा; 
घर-बाहर कर काम हुआ है गुज़ारा, 
इच्छाओं को अपनी खुद जलाना है पड़ा | 

एक अनाथ ने कब कभी नसीब है पाया, 
किताबों की जगह हाथों झाड़ू है आया; 
सरकारी वादे तो दफ्तरों तक हैं बस, 
कष्टों में भी अब मुसकुराना है आया | 

नियति मेरी यूं ही दर-दर है भटकना, 
झाड़ू-पोंछा, बर्तन अब मजबूरी है करना; 
हालात मेरे शायद न सुधरने हैं वाले, 
अच्छे रहन-सहन और किताबों को तरसना |

10 comments:

  1. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब

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  2. आभार आपका शास्त्री जी |

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  3. बाल श्रम की सजीव तस्वीर है ये रचना यहाँ लडकियाँ पैदा होने से पहले "बाई "और लडके मुंडू बन जाते हैं .सरकार साक्षरता के आंकड़े हिलाती है लहराती है .

    ram ram bhai
    शनिवार, 22 सितम्बर 2012
    क्या फालिज के दौरे (पक्षाघात या स्ट्रोक ,ब्रेन अटेक ) की दवाएं स्टेन्ट से बेहतर विकल्प हैं

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  4. दिल को छू लेने वाले भाव ...

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  5. दिल को छू लेनेवाली मार्मिक रचना..

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  6. सुंदर ज़ज़्बात....
    शुभकामनायें!

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  7. मार्मिक ... समाज की इतनी दुर्दशा है की अनाथ बच्चों को काम करना पढता है जीविय रहने के लिए ... जबकि ये कार्य समाज या सरकार का होना चाहिए ...

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  8. चित्र को परिभाषित करती रचना है.
    मार्मिक भाव को संजोये.
    आपके इस भावुक ह्रदय को उत्कृष्ठ कृति के लिए.
    हार्दिक बधाई

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  9. एक कटु यथार्थ का प्रभावी चित्रण...

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