पढ़ना था मुझे पर पढ़ न पाई,
सपनों को अपने सच कर ना पाई;
रह गए अधूरे हर अरमान मेरे,
बदनसीबी की लकीर मेरे माथे पे छाई |
खेलने की उम्र में कमाना है पड़ा,
झाड़ू-पोंछा हाथों से लगाना है पड़ा;
घर-बाहर कर काम हुआ है गुज़ारा,
इच्छाओं को अपनी खुद जलाना है पड़ा |
एक अनाथ ने कब कभी नसीब है पाया,
किताबों की जगह हाथों झाड़ू है आया;
सरकारी वादे तो दफ्तरों तक हैं बस,
कष्टों में भी अब मुसकुराना है आया |
नियति मेरी यूं ही दर-दर है भटकना,
झाड़ू-पोंछा, बर्तन अब मजबूरी है करना;
हालात मेरे शायद न सुधरने हैं वाले,
अच्छे रहन-सहन और किताबों को तरसना |
पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
ReplyDeleteआभार आपका शास्त्री जी |
ReplyDeleteसुंदर रचना !
ReplyDeleteबाल श्रम की सजीव तस्वीर है ये रचना यहाँ लडकियाँ पैदा होने से पहले "बाई "और लडके मुंडू बन जाते हैं .सरकार साक्षरता के आंकड़े हिलाती है लहराती है .
ReplyDeleteram ram bhai
शनिवार, 22 सितम्बर 2012
क्या फालिज के दौरे (पक्षाघात या स्ट्रोक ,ब्रेन अटेक ) की दवाएं स्टेन्ट से बेहतर विकल्प हैं
दिल को छू लेने वाले भाव ...
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाली मार्मिक रचना..
ReplyDeleteसुंदर ज़ज़्बात....
ReplyDeleteशुभकामनायें!
मार्मिक ... समाज की इतनी दुर्दशा है की अनाथ बच्चों को काम करना पढता है जीविय रहने के लिए ... जबकि ये कार्य समाज या सरकार का होना चाहिए ...
ReplyDeleteचित्र को परिभाषित करती रचना है.
ReplyDeleteमार्मिक भाव को संजोये.
आपके इस भावुक ह्रदय को उत्कृष्ठ कृति के लिए.
हार्दिक बधाई
एक कटु यथार्थ का प्रभावी चित्रण...
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