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Wednesday, December 19, 2012

चुनौती वक़्त के साथ चलने की

देखो बू आ रही है ये दुनिया जलने की,
आज राह देखता सूरज शाम ढलने की,
जिंदगी हर एक की यहाँ पशोपेश में "दीप",
आज एक चुनौती है वक़्त के साथ चलने की |

बिखर रही मानवता माला से टूटे मोती जैसी,
रंग दिखा रही हैवानियत जाने कैसी-कैसी,
तार-तार होती अस्मिता आज सरेआम ऐ "दीप",
नैतिकता और सभ्यता की हो रही ऐसी-तैसी |

दो पल का शोक मनाने को हर कोई है खड़ा,
सच्चाई और सहानुभूति की बात करने को अड़ा,
हैवान तो है बैठा हम सबके ही बीच ऐ "दीप",
पूरा का पूरा समाज ही आज है हासिये में पड़ा |

कीमत जिंदगी और इज्ज़त की दो पैसे भी नहीं,
मौत का ही मंजर तो दिखता है अब हर कहीं,
एक-दूसरे को लूटने में ही लगे हैं सभी ऐ "दीप",
कौफजदा-सा होकर सब जी रहे हैं वहीं के वहीं |

7 comments:

  1. stanza लिखने के एक अनोखे रूप में ,,भावपूर्ण अभिव्यक्ति

    मेरी नई कविता आपके इंतज़ार में : नम मौसम, भीगी जमीं ..

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  2. कीमत जिंदगी और इज्ज़त की दो पैसे भी नहीं,
    मौत का ही मंजर तो दिखता है अब हर कहीं,
    एक-दूसरे को लूटने में ही लगे हैं सभी ऐ "दीप",
    कौफजदा-सा होकर सब जी रहे हैं वहीं के वहीं |

    आज के समाज का सही चित्रण ।

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  3. बहुत खूब,आज के हालात सटीक चित्रण,,,,प्रदीप जी,बधाई

    recent post: वजूद,

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  4. सच है आज पग पग पर चुनौतिया खड़ी है..भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

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  5. ख्याल बहुत सुन्दर है और निभाया भी है आपने उस हेतु बधाई, सादर वन्दे,

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  6. गहन बिचारों की प्रस्तुति सुन्दर शब्द संयोजन |
    आशा

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