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Thursday, January 26, 2012

मात-पिता के चरणों में

मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम,
मात-पिता के चरण की माटी सौ चन्दन समान ।

मात-पिता की निःस्वार्थ सेवा, शत यज्ञ का फल दे,
मात-पिता पावन कर देते, गंगा का जल से ।

मात-पिता के स्नेह की छाया ताप में दे आराम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता गुरु से भी बढ़कर, मात-पिता भगवान,
मात-पिता के संस्कारों से बनता कोई महान ।

मात-पिता की दया से मिलते हैं इस जग में नाम,
मात-पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

मात-पिता के दरश से मिलते सुख, शक्ति प्रबल,
मात-पिता के हस्त जो सर पे सब कर्म लगे सरल ।

मात-पिता गुण-धाम हैं इनका क्या मैं करुँ गुणगान,
मात पिता के चरणों में ही बसते तीरथ-धाम ।

जैसी निगाहें वैसा शमाँ

जैसी निगाहें वैसा शमाँ,
निगाहों के अनुरुप बदलता जहाँ,
गमगीन होके देखो तो दुनिया उदासीन,
प्यार से देखो तो सबकुछ खुशनुमा ।

कोई कहता आधा है खाली,
कोई कहता है आधा भरा,
नजरिये का फेर है ये सब,
नजरिये पे निर्भर है अपनी धरा ।

सोच अच्छी हो तो होगे सफल,
गलत सोच डुबो देगा नाव,
सकारात्मता जीवन को देती है राह,
हो तपते हुए मौसम में जैसे छाँव ।

Wednesday, January 25, 2012

एहसास तेरा

ढुँढती है नजरें तुझे हर दिन और हर रात,
आईने में नजरें अब तो तुझे तलाशती है ।

आहट तेरी करार है लेती अब तो हर हर एक पल,
भँवरों की गुँजन भी धुन तेरा सुनाती है ।

सपने तेरे मदहोश हैं करते अब निद्रा में हर रात,
जागती हुई आँखे भी ख्वाब तेरा दिखाती है ।

छुवन तेरा महसूस है करता ये मन हर लम्हा,
हवाओं की सरसराहट एहसास तेरा कराती है ।

खुशबू तेरी महकाती है अब बगिया में हरदम,
मादकता फूलों की भी याद तेरा दिलाती है ।

Tuesday, January 24, 2012

शबनमी ये रात

बड़ी ही शबनमी-सी है ये रात,
क्यों न मचले हृदय के जज्बात,
आशा में देवी निद्रा से हसीन मुलाकात,
आँखों ही आँखों में ज्यों हो जाए बात ।

करवटों में बीते ये रात की गहराईयाँ,
एक अकेले हम और जाने कितनी परछाईयाँ,
पल-पल का सफर दुष्कर उसपे ये तनहाईयाँ,
आगोश में ले लूँ आकाश, भर लूँ अँगड़ाईयाँ ।

सरगमीं ये कैसी दिल में कैसी ये हलचल,
धड़कनों की रफ्तार यूँ बढ़ती है पल-पल,
आकस्मिक अस्थिरता पर मन है अविचल,
शबनमी ये रात है या कोई प्यारी गज़ल ।

ये झुकी हुई पलकें

ये झुकी हुई पलकें,
न जाने क्या कहती है;
लबों की तरह खामोश है,
शायद उनमे कुछ राज है ।

कहती है शायद
रहने दो राज को राज,
आवरण इतनी जल्द न हटाओ,
शायद कुछ खोने का डर भी है इनमे,
कभी लगता कहती है पास आओ ।

ये झुकी हुई पलकें,
हैं सागर को समेटे,
रंजोगम बयाँ करती,
पर फिर भी झुकी रहती ।

हया की चादर में लिपटी,
स्याह की धार में बँधी,
न जाने कितने भेद छुपाये,
तेरी ये झुकी हुई पलकें ।

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