भ्रष्ट समाज का हाल मैं, तुमको रहा सुनाय |
भूल भयो तो भ्रात, मित्र, झापड़ दियो लगाय ||
ज्यों सुरसा का मुख बढे, वैसो फैलत जाय |
हनुमान की पूंछ सम, अंत न इसका भेन्ताय ||
देश की दुर्गत हाल भई है | जनता-जन बेहाल भई है ||
बसते थे संत नित हितकारी | आज पनपते भ्रष्टाचारी |१|
राजनीति व नेता, अफसर | ढूंढ़ रहे सब अपना अवसर ||
मधुशाला में जाम ज्यों होता | व्यभिचार अब आम यूँ होता |२|
ज्यों बालक फुसलाना होता | वैसा घुस खिलाना होता ||
एक कर्म नहीं आप ही होता | बिन पैसा सब शाप ही होता |३|
काम चाहिए अगर फटाफट | जेब भरो तुम यहाँ झटाझट ||
बिन पैसा पानी भी न मिलता | पैसों से सरकार भी चलता |४|
जब हो सब यूँ भ्रष्टाचारी | तब पैसों की महिमा प्यारी ||
सोकर चलती तंत्र सरकारी | गर्व करो ये राज हमारी |५|
लोकपाल बिल है लटकाई | कई की इससे सांशत आई ||
देशभक्त बदनाम हो चलते | निजद्रोही निज शान से फलते |६|
गाँधी भी निज नेत्र भर लेते | गर देश दशा दर्शन कर लेते ||
कह जाते मैं नहीं हूँ बापू | भला होई तुम मार दो चाकू |७|
ऐसे न था सोच हमारा | देश चला किस राह तुम्हारा ||
यह नहीं सपनों का भारत | खो गया अपनों का भारत |८|
राज्य, देश सब एक हाल है | भ्रष्टों का यह भेड़ चाल है ||
है हर महकमा बेसहारा | भ्रष्ट ने सबमे सेंध है मारा |९|
फ़ैल चूका विकराल रूप है | ज्यों फैला चहुँओर धुप है ||
जस जेठ की गर्मी होती | तस तापस ये भ्रष्ट की नीति |१०|
जो समझे ईमान धर्म जैसा | वो मेमना श्वानों मध्य जैसा ||
सत्य मार्ग पे जो चल जाये | जग में हंसी पात्र बन जाये |११|
सच्चों का यहाँ एक न चलता | गश खाकर बस हाथ ही मलता ||
जो ध्रूत चतुर चालाक है बनता | उसका ही संसार फल-फूलता |१२|
अपना है यह देश निराला | चाँद लोगों ने भ्रष्ट कर डाला ||
लोग स्वार्थी हो रहे नित | को नहीं समझे औरों का हित |१३|
स्वार्थ ही सबको भ्रष्ट बनाता | स्वार्थ ही सब कुकर्म करता ||
स्वार्थ है सबके जड़ में व्याप्त | स्वार्थ ख़तम हर भ्रष्ट समाप्त |१४|
महंगाई का अलग तमाशा | बीस कमाओ खर्च पचासा ||
घर का बजट बिगड़ता जाये | चीर निद्रा में राजा धाये |१५||
महंगाई अम्बर को छूता | धन, साधन कुछ नहीं अछूता ||
जन-जन ही बेहाल हुआ है | दो-एक मालामाल हुआ है |१६|
अब धन निर्धन क्या कमाए | क्या खिलाये क्या वह खाए ||
महंगाई ने कमर है तोड़ी | आम जन की नस-नस है मरोड़ी |१७|
सरकारी धन अधर में लटका | बीच-बिचौलों ने सब झटका ||
एक नीति न धरा पर आई | कागज में होती है कमाई |१८|
सरकारी हैं बहुत योजना | सब बस अफसर के भोजना ||
जो नित नीति के योग लगाते | स्वयं ही उसका भोग लगाते |१९|
मन मानस पर ढूंढ है छाई | देश को खुद है उबकी आई ||
स्वयं समाज है जाल में उलझा | राजनीति एक खेल अन-सुलझा |२०|
पढ़ ले जो यह भ्रष्ट पचीसा | निज मन नाचे मृग मरीचा ||
भ्रष्टाचार जो मिटाने जाई | खुद अपनी लुटिया है डूबाई |२१|
मत समझो इसे लिट्टी चोखा | दिन दुनिया का खेल अनोखा ||
गहराई में उतर चूका यह | रक्त-रक्त तक समा चूका यह |२२|
जम चूका है बा यह बीमारी | फ़ैल रहा बनके महामारी ||
कहीं तो है यह भूल हमारी | जिम्मेदारी लें हम सब सारी |२३|
जन-जन को ही बदलना होगा | हर भारतीय को सुधरना होगा ||
सब अपना चित निर्मल कर लें | गंगा सम मन निर्मल कर लें |२४|
भ्रष्टाचार न हो नाग हमारा | ऐसे देश जाये जाग हमारा ||
कहे "प्रदीप" ये राग हमारा | स्वच्छ समाज हो भाग हमारा |२५|
सुन्दर स्वप्न देख लिया, हो भ्रष्टाचार विमुख |
देश हमारा यों रहे ज्यों, गाँधी स्वप्न सन्मुख ||