सफ़र पर न जाने था कब से अकेला, चारों तरफ बस वीराना ही था |
पल-पल बिताना भी था अति दुष्कर, फिर भी मैं मंजिल को भूला न था |
मंजिल को पाने की चाहत में मैं, काँटों के पथ पे भी चलता रहा |
सपनो को अपने संजोये हुए, कदम दर कदम मैं बढ़ाता रहा |
एक मोड़ पर अचानक मिला अजनबी, होठों पे उसकी एक मुस्कान थी |
उसने देखा मुझे कुछ अपनों की तरह, वर्षों से ज्यों उससे पहचान थी |
अब तो सारा समां बस सजग हो उठा, बहारें खिजां पे अब लदने लगी |
मेरा सूना डगर खिलखिलाने लगा, सफ़र की लगन अब बदलने लगी |
चले आने से संग में उस अनजाने के, कांटें भी तो फूल बनने लगे |
जहाँ कष्टों की ही पूरी भरमार थी, वहां सुख के नए फूल खिलने लगे |
उस अनजाने ने किया मुझसे ये वादा, कि मंजिल तक तेरे चलूँगा मैं भी |
मैंने सोचा सफ़र में चलो कोई साथी मिला, मुश्किल न होगा अब मुश्किल डगर भी |
एक दोराहे पे तभी उसने अचानक, राह अपनी बदल, भूल वादा गया |
मैंने पूछा तो उसने बस इतना कहा, सॉरी, एक मजबूरी से सामना हो गया |
मैं हंसा, पर हंसी में भी संताप था, उसको जाते हुए देखता रह गया |
न विश्वास हो एक अनजाने पर, कभी आगे, ऐसा सोचता रह गया |
दिलासा दिया खुद को है यह नियम, यहाँ मिलना-बिछुड़ना लगा रहता है |
जीवन सफ़र में कई अजनबी का, ये आना-जाना लगा रहता है |
अकेले बस चलने कि आदत ही हो, बात इससे बड़ी कुछ न हो सकती है |
पर अनजाने पे टूक भरोसा न हो, अपनी ऐसी भी आदत न हो सकती है |
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