(डायरी से एक और रचना, कॉलेज के शुरूआती दिनों की |)
मेरी कल्पना कल्पना ही रही शायद,
हकीकत न उसको कभी बना सका मैं;
चाहा तो बहुत इस दिल ने मगर,
कल्पना को अपने न अपना सका मैं |
की थी कल्पना इस दिल ने कभी,
मन में कल्पना के बादल बना रहा था मैं;
कल्पना को जामा हकीकत का दूंगा,
सोच दिए ख़ुशी के जला रहा था मैं |
कल्पना ही कल्पना अपने मन में लिए,
सफ़र पर कुछ करने को निकला था मैं;
आसान नहीं है यह डगर कल्पना का,
पर आसान बनाने को निकला था मैं |
कल्पना के पथ में है दीवार आई,
किस्मत का साथ भी खोने लगा हूँ मैं;
तोडूं दीवार को उस पार मैं जाऊं,
पर कैसे मैं जाऊं, सोच खोने लगा हूँ मैं |
मैंने कल्पना की, पर ऐसी भी न की,
कि उड़कर गगन को कभी धर लूँगा मैं;
छोटी सी कल्पना पूरी करने की तमन्ना,
क्या कल्पना की कल्पना मन से हर लूँगा मैं ?
मेरी कल्पना सिर्फ एक कल्पना नहीं है,
यह कहकर खुद को ढाढस दिला सकता मैं;
साथ गर दिया परिस्थितियों ने मेरा,
हकीकत भी उसको बना सकता मैं |
09.12.2003
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार को (04-11-2013) "दिमाग का फ्यूज़" (चर्चा मंच 1422) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया प्रस्तुति है महोदय-
ReplyDeleteशुभकामनायें स्वीकारें-
सुन्दर रचना।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : एशेज की कहानी
भारतीय क्रिकेट टीम के प्रथम टेस्ट कप्तान - कर्नल सी. के. नायडू
मेरी कल्पना कल्पना ही रही शायद,
ReplyDeleteहकीकत न उसको कभी बना सका मैं;
चाहा तो बहुत इस दिल ने मगर,
कल्पना को अपने न अपना सका मैं |
हाय गिर जाती है पात -गर्भ सी ,
कल्पना पहले प्यार की।
खूबसूरत कल्पना
ReplyDeleteकल्पना करते रहिए ...... आभार
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