मेरे साथी:-

Monday, April 28, 2008

मैं कौन?

इंसानों की बस्ती में एक अदना-सा इंसान हूँ मैं,
सबकी तरह इस दुनिया में बस कुछ दीन का मेहमान हूँ मैं।

मस्ती ही है फितरत मेरी, हर गम से अनजान हूँ मैं,
गम लेकर हूँ खुशियाँ देता, अपनों की पहचान हूँ मैं।

नए दौर की झलक भी मुझमे, पुरखों का भी मान हूँ मैं,
सत्य-मार्ग से डिगा नहीं हूँ, ख़ुद का ही अभिमान हूँ मैं।

पत्थर को जो मोम बना दे, जलता हुआ वो आग हूँ मैं,
मानस पटल पे छ जाता हूँ, यादों का एक भाग हूँ मैं।

दलदल से होकर गुजरूं पर फंसता नहीं वो घाघ हूँ मैं,
दिख जाए कुछ दाग भले पर बिल्कुल ही बेदाग हूँ मैं।

जीवन को मैं प्रेम से तोलूं, इसके लिए गंभीर हूँ मैं,
पथ में भले निराशा मिले पर आशा के लिए धीर हूँ मैं।

साथ हो जिसका सुखद ही हरदम, वो यारों का यार हूँ मैं,
आशा टिकी है सबकी मुझ पर, कईयों का आसार हूँ मैं।

तिमिर तम को दूर हटाऊं, ज्योति दे वो दीप हूँ मैं,
भटके हुए को राह दिखाऊँ, निश्चय ही "प्रदीप" हूँ मैं।

2 comments:

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  2. सुन्दर भाव अभिवयक्ति है आपकी इस रचना में ,वाह बहुत खूबसूरत अहसास .
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