जब जागो तुम नींद से, जानो तभी सवेरा है ।
जाग के भी गर आँख बंद, चारो तरफ अँधेरा है ।।
तुम जो आये है खिला, मन का ये संसार ।
चहक रहा है अंग-अंग, आया है बहार ।।
ऑक्टोपस हैं हर जगह, चूस रहें हैं खून।
मानव बीच हरवक्त छुपे, अक्टूबर या जून ।।
आहट है ये मौत की, बूझ सको तो बूझ ।
जो इसको है बूझ गया, रहा स्वयं से जूझ ।।
बेटियाँ महकाती हैं, घर-आँगन सब एक-सा ।
चंचल मन रिझाता सबको, हृदय होता नेक-सा ।।
झिझक ये कैसी पूछता, आईना आधी रात ।
आँखे खुद ही बोलती, हर राज की बात ।।
रिश्तों की जमीन को, सींचों तुम बस प्यार से ।
अटूट-सा रिश्ता बन जाता, दोस्त हो या यार से ।।
एक तरफ हैं पूजते, बना के दुर्गा काली ।
कोख में ही हैं मारते, मानवता को गाली ।।
जीवन स्त्री का नहीं, परिचय की मोहताज |
वो समाज का कल है, वो समाज का आज ||
महिलाएं हैं हर जगह, पांव रही पसार ।
हर क्षेत्र में जम रहीं, हर और विस्तार ।।
जिंदगी ही पूछ रही, जीवित हैं क्या हम |
श्वास लेना ही नहीं, जीवन का है मर्म ||
रे मन गाओ गीत तुम, कलियों संग मुसकाओ |
दुनिया ही जब डोल रही, तुम भी संग में डोल जाओ ||
याद आई है फिर, तेरी मेरी वही कहानी |
गुजरे हुए वो शाम सुहाने, रेत पे बनी निशानी ||
नोक-झोंक तो अंग हैं, प्यार का, उद्गार का |
रिश्तों को सुदृढ़ करे, खुशनुमा संसार का ||
मेरे मन न हार तू, डरना नहीं तू जान लें |
पीड़ा नहीं है व्यर्थ मिलते, सत्य को तू पहचान ले ||
वक्त का तकाजा है, रिश्तों का हो आकलन |
बही खाते में लिखे, कहता है ये आज मन ||
पैसे और शराब से, मिल जाते हैं वोट |
लोकतन्त्र में आज कल, उड़ते नोट पे नोट ||