फिर भी न जाने कैसे
हो ही जाता है सबका
कभी न कभी कुछ न कुछ-
गुमशुदा |
इस भेड़ चाल के दौर में,
सब कुछ है गुमशुदा;
इसका भी कुछ गुमशुदा,
उसका भी कुछ गुमशुदा |
किसी का ईमान गुमशुदा,
किसी का जहान गुमशुदा;
गुमशुदा है अपने ही अंदर की अंतरात्मा,
जीवित होके भी जान गुमशुदा |
जीवन से बहार गुमशुदा,
किसी का संस्कार गुमशुदा;
गुमशुदा है हृदय के अंदर का बैठा वो भगवान,
तलवार तो है पर धार गुमशुदा |
मतिष्क से एहसास गुमशुदा,
हृदय से जज़्बात गुमशुदा;
गुमशुदा है मानव के अंदर की मानवता,
जुबान तो है ही पर मिठास गुमशुदा |
रिश्तों से विश्वास गुमशुदा,
अपनों पर से आस गुमशुदा;
गुमशुदा है पहले जो होता था परोपकार भाव,
एक दूजे के हृदय में आवास गुमशुदा |
नहीं है किसी को फिकर,
नहीं है किसी को खोज;
जो गुम हो गया वो गुम ही रहे,
जो एक बार गया वो सदैव के लिए-
गुमशुदा |
बहुत बढ़िया विषय उठाया है ।
ReplyDeleteप्रिय प्रदीप जी ने ।
जिन्दगी ही है गुमशुदा
गमजदा ।।
शुभकामनायें ।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा रचना मित्र बधाई
ReplyDelete"गुमशुदा" समाज पर एक तंज हैं। जिसने भी इसे पढ़ा एक कटार सी उनके दिलों पर जरुर चली होगी।
ReplyDeleteक्या कहने ... वाह।
बढ़िया प्रस्तुति हार्दिक बधाई
ReplyDeleteवाह वाह प्रदीप जी ! एक शब्द के इर्द-गिर्द कितनी सच्चाइयां ! आपकी लेखनी कमाल करती रहे … वाऽह ! क्या बात है !
ReplyDeleteसुंदर भाव ! सुंदर शब्द !
खूबसूरत रचना !
शुभकामनाओं सहित…
प्रदीप कुमार जी , कमेंट देने के सिस्टम में पूरी तरह परिवर्तन करलें … कमेंट देने की प्रक्रिया इतनी उबाऊ और समय खाने वाली हो तो कमेंट की इच्छा ही खत्म हो जाती है … # और कमेंटकर्ता के नाम को क्लिक करने पर भी आपके ही ब्लॉग के खुलने का सिस्टम तो आपके यहां ही देखा … :( भई ! आपके कमेंटकर्ता तक कोई और न पहुंचे इसके पीछे क्या मंशा है ??
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार |
ReplyDeleteलोकतंत्र से है लोक जुदा ,
ReplyDeleteनेता से है ईमान जुदा ,
तू मुझसे मैं तुझसे जुदा ,
या खुदा .
बढ़िया पोस्ट है गम शुदा ,
तलाश गुमशुदगी की ,
लिखा रपट इस गुमशुदा की .
बहुत खूब
ReplyDeleteबढ़िया...यहां सब कुछ है गुमशुदा
ReplyDelete