मेरे साथी:-

Sunday, October 21, 2012

प्रिये !!

प्रिये !!
निःसंदेह हो
चक्षुओं से ओझल,
तेरी ही छवि
प्रतिपल निहारता,
स्मरण तेरा
प्रिये !!
आनंद बोध देता,
हृदय स्पर्शी होता
दूरी भी तेरी
प्रिये !!
समीपता का भाव लिए,
क्षण भर भी तुझसे
मैं परोक्ष नहीं हूँ |

वास तेरा
प्रिये !!
मेरे अन्तर्मन में
स्वयं का प्रतिरूप
तेरे नैनों में पाया,
फिर तू और मैं
मैं और तू कैसे ?
प्रिये !!
भौतिक स्वरूप भिन्न
एकीकृत अन्तर्मन,
होकर भी पृथक
तू और मैं
अभिन्न हैं प्रिये !!

Saturday, October 20, 2012

उधेड़बुन

असमंजस है व्याप्त
स्थिति भयावह
रजनी-सा तम
चहुंओर
व्याकुल मन
कुठित
घिरा हुआ राष्ट्र
कंटीली दीवारों से |

अपनत्व की धारा
कलुषित बाढ़ बनी
तथाकथित परिजन
नोंच-खसोट में लिप्त
विश्वास की चादर
फटती जा रही
मिष्टान का भी स्वाद
धतूरे जैसा |

कैसी राह में
चले हैं हम
भविष्य अपना
व राष्ट्र का
न जाने
किस हद तक
संरक्षित |

कैसे हो भला
किरण कहाँ है
कई प्रश्नों के
विकट जाल में
दिन-ब-दिन उलझता |

आतंकित मन
प्रश्न अनुत्तरित
जवाबों की खोज में
एक और प्रश्न;
व्यस्त है हृदय
न जाने कैसी
ये उधेड़बुन |

Friday, October 19, 2012

जवाब नहीं मिलता

दिल की हस्ती किसी को क्या दिखाएँ "दीप",
गुम हो सकूँ ऐसा कोई मंजर नहीं मिलता;
नदियां तो अक्सर मिल जाती हैं राहों में,
पर डूब सकूँ ऐसा कोई समंदर नहीं मिलता | 

साथ उसके रह सकूँ वो जहां कहाँ ऐ "दीप", 
जला सकूँ खुद को वो शमशान नहीं मिलता; 
इश्क में तेरे डूब जाने को दिल करता तो है, 
पर टूट सकूँ जिसमे वो चट्टान नहीं मिलता | 

तैयार तो खड़े हैं हम यहाँ लुटने को ऐ "दीप", 
पर चुरा सके जो मुझको वो चोर नहीं मिलता; 
बह तो जाऊँ मैं बारिश में तेरे प्यार की मगर, 
बरसात वो कभी मुझको घनघोर नहीं मिलता | 

एक अलग-सी ही दुनिया बसा लूँ संग तेरे मैं, 
साथ तेरे बैठ के देखूँ वो ख्वाब नहीं मिलता; 
प्रश्न तो कितने ही उठते हैं मन में "दीप", 
पर दे सकूँ जो तुझको वो जवाब नहीं मिलता |

Thursday, October 18, 2012

ठूँठ

घर के बाहर
कुछ दूरी पर
सड़क किनारे
एक वृक्ष था
कई वर्षों से,
पर आज वहाँ
अचेतन-सा
खड़ा एक ठूँठ,
तिरस्कृत-सा
बहिष्कृत-सा
समय के साथ
सुख वो गया
सारे पत्ते छोड़ गए
डलियाँ काट ली गई,
अपनों से ठुकराया हुआ
एकटक स्तब्ध-सा |

जवानी में उसके
पूछ थी बहुत
फलदार था
छायादार था
तारीफ था पाता
इतराता था
सानिध्य उसके
भीड़ थी होती,
बड़ी बड़ी डालियाँ,
असंख्य पत्ते
हरवक्त खड़ा वो
लहलहाता था |

पर आज तो
दृश्य उलट है
देखता नहीं कोई
पूछता भी नहीं
त्यागा हुआ है
तन्हा -सा है
कोई नहीं है उसका,
चौपाया अकसर
देह रगड़ते
शायद है रोता
व्याकुल है होता
रहता मन मसोस का
कुछ भी ना कह पाता |

इंतजार में है
कोई किसी दिन
आयेगा उसके पास
काट लेगा उसे
जलाएगा उसको
हाथों को सेकेगा
शायद कुछ ऐसा ही
अंत है उसका
बंद आँखों से अपने
वह राह देख रहा |

राहगीरों को चलते
जब देखता है
कभी-कभी तो वो
बहुत ज़ोर से हँसता
शायद है कहता-
तेरा भी हाल
मुझ जैसा होगा
जीना है जी लो
भाग-दौड़ कर लो
जानता हूँ इन्सानों को
आगे चलके जीवन में
तेरा भी तिरस्कार होगा
तेरा भी बहिष्कार होगा
मौत की भीख माँगेगा
उम्र के इस पड़ाव पर |

Wednesday, October 17, 2012

हे माँ दुर्गा !


प्रथम दिवस माँ शैलपुत्री, कष्ट मेरी हर लेना,
मानव जीवन को मेरे, साकार यूंही कर देना |

द्वितीय दिवस हे ब्रह्मचारिणी, विद्या का फल मांगू,
जीवन हो उज्ज्वल सबका, उज्ज्वलता तुझसे चाहूँ |

तृतीय दिवस माँ चंद्रघंटा, मुझको बलशाली करना,
हर मुश्किल से लड़ पाऊँ माँ, शक्तिशाली करना |

चतुर्थ दिवस हे कुष्मांडा, जगत की रक्षा करना,
भक्तों का अपने हे माता, तू सुरक्षा करना |

पंचम दिवस स्कन्द-माता, जगत की माता तू,
मातृत्व तू बरसाना माता, सब कुछ की ज्ञाता तू |

षष्ठी दिवस माँ कात्यायिनी, दुष्टों की तू नाशक,
तू ही तो सर्वत्र व्याप्त माँ, तू ही सबकी शासक |

सप्तम दिवस माँ कालरात्रि, पापी तुझसे भागे,
सेवक पे कृपा करना, जो ना पूजे वो अभागे |

अष्टम दिवस माँ महागौरी, श्वेतांबर धारिणी,
अंधकार को हरना माता, तू ही तो तारिणी |

नवम दिवस हे सिद्धिदात्री, कमलासन तू विराजे,
शंख, सुदर्शन, गदा, कमल, माँ तुझपे ही तो साजे |

नौ रूपों में हे माँ दुर्गा, कृपा सदैव बरसाना,
पूजूँ तुझको, ध्याऊँ तुझको, सत्य मार्ग दिखलाना |

हिंदी में लिखिए:

संपर्क करें:-->

E-mail Id:
pradip_kumar110@yahoo.com

Mobile number:
09006757417

धन्यवाद ज्ञापन

"मेरा काव्य-पिटारा" ब्लॉग में आयें और मेरी कविताओं को पढ़ें |

आपसे निवेदन है कि जो भी आपकी इच्छा हो आप टिप्पणी के रूप में बतायें |

यह बताएं कि आपको मेरी कवितायेँ कैसी लगी और अगर आपको कोई त्रुटी नजर आती है तो वो भी अवश्य बतायें |

आपकी कोई भी राय मेरे लिए महत्वपूर्ण होगा |

मेरे ब्लॉग पे आने के लिए आपका धन्यवाद |

-प्रदीप