मेरे साथी:-

Tuesday, February 15, 2011

मोमबत्ती

एक मोमबत्ती जलती जाती,
जल-जल के कुछ कहती जाती;
ताप में खुद को पिघलाती,
रौशन जहाँ को कर जाती|

एक धागे से संजोग बनाती,
अद्भुत लौ ये दिखलाती;
तूफ़ान से अगर ये लड़ जाती,
जब तक न बुझे लडती जाती|

हर मानव को कुछ सिखलाती,
मानवता का ये पाठ पढ़ाती;
परहित ही सर्वोपरि है,
खुद जलकर सबको बतलाती|

हर कष्ट को खुद ही सह जाती,
औरों का भला करती जाती;
क्षण-क्षण विलुप्त होती जाती,
पर हर पल को दहका जाती|

हर किरणें उसकी समझाती,
लड़ने का बल ये दिलवाती;
अंतर्मन में उल्लास ये भरती,
खुशियों के दरश ये करवाती|

माना की ये गलती जाती,
पर पुनः पुनः जमती जाती;
उठ-उठ कर तुम लड़ते जाओ,
इस जोश को हममे भर जाती|

Monday, February 14, 2011

समय का आतंक

सन्नाटे को चीरती हुई एक आवाज सी आती है,
मन थोड़ा भयभीत पर एक खौफ जगा जाती है।
हृदय उद्वेलित हो उठता है, हर रोम उसक सा जाता है,
ये कौन-सी ऐसी विपदा है या कोई अनर्गल बातें है,
ये कौन-सा ऐसा भय है जो दिकभ्रांत कर जाता है।
ये आवाज नहीं बस खौफ है जो अंतर्मन में व्याप्त है।
जोश विडंबित बैठा है और सुस्त भुजायें सोई हैं।
काल पे कोई जोर नहीं,ये काल का ही कमाल है;
ये जाल बड़ा ही उत्कृष्ट है,है ये समय का आतंक।


है काल का ये रौद्र रूप एक अदना मानव क्या करे?
भयाक्रांत हो निर्जीव-सा माटी का मूरत क्या करे?
हर 'लम्हा' इसके सैनिक हैं, हर 'कष्ट' ही इसका वार है।
भाग्योदय का सोचे कैसे? ये भाग्य भी इसके वश में है।
है घेर रखा चहुँ ओर से, ये बड़ा विलक्षण पहरा है।
हर एक क्षण आतंकित है, पल-पल डर से ठहरा है।
'सोच' तो कुंठित हो चुका, और जंग लगी है 'समझ' में।
ये दोष नहीं अपना कोई, ये भाग्य और काल का चाल है;
ना हो सकता कुछ भी भला, है ये समय का आतंक।

(सब कहते है "टाईम अच्छा नही चल रहा यार"। उसी स्थिति का मैने चित्रण करने की कोशिश की है।)

Friday, February 11, 2011

प्रेमोत्सव या प्रेम का व्यापार

आज सुबह समाचार पत्र पर अचानक से नजर पड़ी,
"वेलेनटाईन डे की तैयारी" शीर्षक कुछ अटपटा सा लगा।
हृदय मे कुछ दुविधा उठी,
मन ही मन मै सोचने लगा|

वेलेनटाईन डे के नाम पर ये क्या हो रहा है?
कई फायदा उठा रहे है कईयों का कारोबार चल रहा है।
एक खाश दिन को प्रमोत्सव पता नहीं किसने चुना,
प्रेम अब हृदय से निकल के बाजार मे आ गया है।
व्यापारीकरण के दौर मे प्यार भी व्यापार हो गया है।
ग्रिटिंग्स कार्ड, बेहतरीन गिफ्ट्स, यहाँ तक की फूलो के भी दाम है
हर चीज अब खाश है बस प्रेम ही आम है।

कुछ इसे मनाने की जिद मे अड़ते रहते है,
कुछ संस्कृति के नाम पे इसे रोकने को लड़ते रहते है।
पर सोचने वाली बात है कि सच्चा प्रेम है कहाँ पे?
पार्क में घुमना, होटल में खाना प्रेम का ही क्या रूप है?
भेड़ों की चाल में शामिल हो जाना ही जिन्दगी है तो,
ऐसी जिन्दगी में सोचने की जगह ही कहाँ है?

अगर सच्चा प्रेम है तो क्या उसका कोई खाश दिन भी होता है?
हर दिन क्या प्रेम के नाम नहीं हो सकता?
क्या मानव होकर हर दिन हम मानव से प्यार नहीं कर सकते?
हर दिन किसी  से या देश से प्यार का इजहार नहीं कर सकते?
जो भी हो पर मष्तिष्क की स्थिति यथावत ही है,
मतिभ्रम है और ना थोड़ी सी राहत ही है।
पर किसी न किसी को तो सोचना ही होगा,
आगे आके गलतियों को रोकना ही होगा|
मष्तिष्क मे आया कि जेहन मे ये ना ही आता तो अच्छा था।

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