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Saturday, November 3, 2012

छोटी-सी गुड़िया

छोटी-सी वो गुड़िया थी गुड़ियों संग खेला करती थी,
खेल-कूद में, विद्यालय में सदा ही अव्वल रहती थी ।

भोली थी, नादान थी वो पर दिल सबका वो लुभाती थी,
मासूमियत की मूरत थी, बिन पंख ही वो उड़ जाती थी ।

बचपन के उस दौर में थी जब हर पल उसका अपना था,
दुनिया से सरोकार नहीं था, उसका अपना सपना था । 

यूँ तो सबकी प्यारी थी पर पिता तो 'बोझ' समझता था, 
एक बेटी है जंजाल है ये, वो ऐसा ही रोज समझता था । 

शादी-ब्याह करना होगा, हर खर्च वहन करना होगा,
लड़के वालों की हर शर्तें, हर बात सहन करना होगा ।

कन्यादान के साथ में कितने 'अन्य' दान करने होंगे,
घर के साथ इस महंगाई में, ये देह गिरवी धरने होंगे ।

छोटी-सी एक नौकरी है, ये कैसे मैं कर पाउँगा,
रोज ये रोना रोता था, मैं जीते जी मर जाऊंगा । 

जितनी जल्दी उतने कम दहेज़ में काम बन जायेगा, 
किसी तरह शादी कर दूँ, हर बोझ तो फिर टल जायेगा । 

इस सोच से ग्रसित बाप ने एक दिन कर दी फिर मनमानी, 
बारह बरस की आयु में गुडिया की ब्याह उसने ठानी । 

सोलह बरस का देख के लड़का करवा ही दी फिर शादी, 
शादी क्या थी ये तो थी एक जीवन की बस बर्बादी । 

छोटी-सी गुड़िया के तो समझ से था सबकुछ परे, 
सब नादान थे, खुश थे सब, पर पीर पराई कौन हरे । 

ब्याह रचा के अब गुड़िया को ससुराल में जाना था, 
खेल-कूद छोड़ गृहस्थी अब उस भोली को चलाना था । 

उस नादान-सी 'बोझ' के ऊपर अब कितने थे बोझ पड़े, 
घर-गृहस्थ के काम थे करने, वो अपने से रोज लड़े । 

इसी तरह कुछ समय था बीता फिर एक दिन खुशखबरी आई, 
घर-बाहर सब खुश थे बड़े, बस गुड़िया ही थी भय खाई । 

माँ बनने का मतलब क्या, उसके समक्ष था प्रश्न खड़ा, 
तथाकथित उस 'बोझ' के ऊपर आज एक दायित्व बढ़ा । 

कष्टों में कुछ मास थे गुजरे, फिर एक दिन तबियत बिगड़ा, 
घर के कुछ उपचार के बाद फिर अस्पताल जाना पड़ा । 

देह-दशा देख डॉक्टर ने तब घरवालों को धमकाया, 
छोटी-सी इस बच्ची का क्यों बाल-विवाह है करवाया ? 

माँ बनने योग्य नहीं अभी तक देह इसका है बन पाया, 
खुशियाँ तुम तो मना रहे पर झेल रही इसकी काया । 

शुरू हुआ ईलाज उसका पर होनी ही थी अनहोनी, 
मातम पसर गया वहां पर सबकी सूरत थी रोनी । 

बच्चा दुनिया देख न पाया, माँ ने भी नैन ढाँप लिए, 
चली गई छोटी-सी गुड़िया, बचपन अपना साथ लिए । 

साथ नहीं दे पाया, उसके देह ने ही संग छोड़ दिया, 
आत्मा भी विलीन हुई, हर बंधन को बस तोड़ दिया । 

एक छोटी-सी गुड़िया थी वो चली गई बस याद है, 
ये उस गुड़िया की कथा नहीं, जाने कितनों की बात है । 

ऐसे ही कितनी ही गुड़िया समय पूर्व बेजान हुई, 
कलुषित सोच और कुरीत के, चक्कर में बलिदान हुई ।

12 comments:

  1. अत्यंत भावपूर्ण सुन्दर रचना.

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  2. खूबसूरत प्रस्तुति |
    बधाई आदरणीय प्रदीप जी ||

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  3. samaj ki kuritiyon aur uske anjaam ki behtareen abhivyakti..

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  4. ऐसे ही कितनी ही गुड़िया समय पूर्व बेजान हुई,
    कलुषित और कुरीत के, चक्कर में बलिदान हुई,,,,,,

    मार्मिक भावपूर्ण सुंदर पंक्तियाँ,,,प्रदीप जी,,,,बधाई,,
    RECENT POST : समय की पुकार है,

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  5. आँखे नम सी लिए हुए बस यूँ ही 2 घड़ी बेजान सा बैठा रहा ... :( किसी ने अगर आवाज न लगाई होती तो शायद रो ही देता.

    निशब्द कविता

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  6. मन को छूती पोस्‍ट

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  7. इतनी जल्दी क्या है बिटिया,
    सिर पर पल्लू लाने की।
    अभी उम्र है गुड्डे-गुड़ियों के संग,
    समय बिताने की।।

    मम्मी-पापा तुम्हें देख कर,
    मन ही मन हर्षाते हैं।
    जब वो नन्ही सी बेटी की,
    छवि आखों में पाते है।।

    जब आयेगा समय सुहाना,
    देंगे हम उपहार तुम्हें।
    तन मन धन से सब सौगातें,
    देंगे बारम्बार तुम्हें।।

    दादी-बाबा की प्यारी,
    तुम सबकी राजदुलारी हो।
    घर आंगन की बगिया की,
    तुम मनमोहक फुलवारी हो।।

    सबकी आँखों में बसती हो,
    इस घर की तुम दुनिया हो।
    प्राची तुम हो बड़ी सलोनी,
    इक प्यारी सी मुनिया हो।।

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  8. धीरज पाता है मन यह सोच कर कि अब समय बदला है -अब ऐसा नहीं होगा !

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  9. बहुत मार्मिक पर एक कुरीति की तरफ बड़ा इशारा हमें इन कुरीतियों से लड़ना होगा बहुत बढ़िया सीख देती हुई रचना के लिए हार्दिक बधाई

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