जिन्दा तो हैं यहाँ
पर प्राण का नाम नहीं,
फिरते हैं यात्र-तत्र
बने जीवित मुर्दा;
कुंठित है सोच
अपंग क्रियाकलाप,
कलुषित है हर अंग
क्या नैन-मुख-गुर्दा |
एक धुंधली ज्योति
है लिए अंतरात्मा,
है उसे लौ बनाके
स्वयं को प्राण देना;
मुर्दा बनके जीना
मृत्यु से भी बद्तर,
है जीवित अगर रहना
बस यही ज्ञान लेना |
आभार |
ReplyDelete... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
ReplyDeleteआभार संजय जी | आपके मेसेज तो रोज मिलते हैं|
Deleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति,प्रभावशाली सुंदर रचना,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST ,,,, काव्यान्जलि ,,,, अकेलापन ,,,,
आपका धन्यवाद |
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका धन्यवाद |
Deleteसच !! मुर्दा बनकर जीना भी भला क्या जीना ..
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति..
सादर
आपका धन्यवाद |
Deleteआपका धन्यवाद |
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