अनंत की खोज में भटकता ही रहा,
पंछी अकेला बस तरसता ही रहा,
दर-ब-दर, यहाँ वहाँ,
और न जाने कहाँ-कहाँ,
जो ढूंढा वो मिला ही नहीं,
जो मिला उसकी तो चाह ही नहीं थी |
अनंत तो अनंत है,
मिल जाये तो फिर अनंत कहाँ ?
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-प्रदीप
सुंदर प्रस्तुति अच्छी रचना....
ReplyDeleteकाफी इन्तजार के बाद आपकी रचना पढ़ने को मिली,..प्रदीप जी,...
RESENT POST काव्यान्जलि ...: गजल.....
आभार धीरेन्द्र जी | हाँ थोडा व्यस्त था इसलिए पोस्ट नहीं कर पा रहा था |
Deleteधन्यवाद सुषमा जी |
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत गूढ़ अर्थ लिए है आपकी चंद पंक्तियाँ......
बहुत खूब.