मेरे साथी:-

Wednesday, April 16, 2008

नज़र न लग जाए कहीं

मासूम से तेरे इस चेहरे को
किसी की नज़र न लग जाए कहीं,
झुक गई तेरी ये पलकें अगर,
सुबह में ही शाम न हो जाए कहीं |

चलती हो क्यों यूं बलखा के तुम,
रास्ते भी पागल न हो जाए कहीं,
कह दो हवा से न छेड़े इन जुल्फों को,
बादल यहाँ न छा जाए कहीं |

होठों की लाली होठों में ही रहे,
छलक कर बाहर न आ जाए कहीं,
झटकों मत अपने बालों को इस तरह,
बिन मौसम बरसात न हो जाए कहीं |

हूर से हुश्न के दीदार के लिए,
आसमान भी ज़मीन पे न उतर आए कहीं,
देखकर तेरी ये अल्हड़ अठखेलियाँ
पत्थर में भी जान न आ जाए कहीं |

झील सी तेरी इन आंखों में कोई,
डूबकर ख़ुद को ही न खो जाए कहीं,
न लो मस्ती में यूं अंगदाइयां,
जमाना ये सारा न मचल जाए कहीं |

साथ में तेरी मीठी मुकुराहट के,
ज़मीन पे फूल भी न बरस जाए कहीं,
देखकर बिंदिया माथे की तेरी,
पूनम का चाँद भी न शर्मा जाए कहीं |

चांदनी सी धवल ये रंगत तेरी,
फिजा में उड़कर न बिखर जाए कहीं,
हिरणी सी तेरी इस चाल को देख,
चलना ही सब न भूल जाए कहीं |

अनमोल ये हुश्न तेरा लगता है जैसे,
बदन से भी बाहर न चू जाए कहीं,
फूलों से नाजुक है तेरा बदन,
लचक न इसमे कभी आ जाए कहीं |

मत देखो मुझे इन मस्त निगाहों से,
दिल ये मेरा बेचैन न हो जाए कहीं,
मुस्कुराया न करो यूं देखकर मुझको,
सब्र का पैमाना न छलक जाए कहीं |

आँखों का काजल गालों पे लगा लो,
ज़माने की नज़र न लग जाए कहीं,
देखा न करो ख़ुद को आईने में कभी,
ख़ुद की ही नज़र न लग जाए कहीं |

Tuesday, April 15, 2008

ये अदा

झील सी ये आँखें, दहकते ये होंठ,दीवाना मुझे क्यों किए जा रही हो;
गुमसुम न बैठो कुछ बोलो तो सही,तड़प क्यो मुझको यूं दिए जा रही हो?


बिखरी ये जुल्फें, महकता बदन,आंखों से रस दिए जा रही हो;
मुस्कुरा दो जरा, बिखरने दो मोटी,क़यामत क्यों ऐसे किए जा रही हो?


कमर ये पतली, ये तिरछी नज़र,जुबान पे क्यों बातें लिए जा रही हो;
बेताब हूँ सुनने को आवाज तेरी,लबों को ऐसे क्यों सीए जा रही हो?


भोला ये चेहरा पर तीखे नयन,जादू क्या मुझपे किए जा रही हो;
खामोश रहकर दिल ही दिल में,अरमान दिलों का लिए जा रही हो।


कोमल ये पैर, कमल सा नाजुक,पायल का भार क्यों दिए जा रही हो;
भीड़ में ख़ुद को यूं कष्ट देकर,जुल्म क्यों मुझपे किए जा रही हो |


प्यार की मूरत है ये सूरत तेरी,दूर क्यो मुझसे किए जा रही हो;
होगा क्या मेरा गर देखा न मुझको,अंदाजा नही तुम किए जा रही हो।


हुश्न है ऐसा कुछ कह नहीं सकता, अदाओं से मदहोश किए जा रही हो;
मिला है तुमको कुदरत से इतना, शृंगार क्यों उसपे किए जा रही हो ?

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-प्रदीप