असली होली गाँव की होली,
अपनी माटी अपनी बोली,
एक अलग ही जोश जहाँ पर,
खुशियाँ ही हर एक की झोली ।
कई दिनों से आस है रहता,
हर शाम मजलिस है सजता,
मंदिर और चौराहों पर नित,
ढोलक और करताल है बजता ।
लोक लुभावन लोक गान में,
नई ताजगी इस जान में,
जोगिड़ा सा रा रा रा के,
मन झूमते मधुर तान में ।
दहन होलिका की तैयारी,
मेला सा माहौल बलिहारी,
घर घर से चंदा लकड़ी का,
रतजग्गा भूल दुनियादारी ।
घर घर बनता पकवान यहाँ,
मालपुआ, गुजिया पान यहाँ,
क्या निर्धन क्या पैसे वाले,
रख एक दूजे का मान यहाँ ।
फिर रंगों की खेल अनोखा,
गिला नहीं, शिकवा न धोखा,
हर दुख दुविधा दूर वही क्षण,
रंग लागे हर एक को चोखा ।
पूरे गाँवों में घुम घुम,
बच्चे बूढ़े हैं मचाते धूम,
क्या भैया क्या भौजी, दादी,
सबको होली के रंग ले चुम ।
ढोलक, मृदंग, मंजीर बजा,
गाकर नाचे मस्ती है मजा,
जा द्वार द्वार खेले होली,
मांगे होली हर घर घर जा ।
हर एक रंगे इस होली में,
कोई घर में नचे कोई टोली में,
हर भेद भाव को भूल भला,
क्यों न गायें निज बोली में ।
जो गाँव की होली में है बात,
हैं कहाँ कहीं ऐसी सौगात,
दो चार मित्र, मेहमान बुला,
बीते होली के दिवस व रात ।
गाँव की होली असली होली,
अजब ठहाके गजब ठिठोली,
मस्ती में झूमे हर मन यूँ,
असली होली गाँव की होली ।
-प्रदीप कुमार साहनी