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Thursday, March 24, 2016

गाँव की होली

असली होली गाँव की होली,
अपनी माटी अपनी बोली,
एक अलग ही जोश जहाँ पर,
खुशियाँ ही हर एक की झोली ।

कई दिनों से आस है रहता,
हर शाम मजलिस है सजता,
मंदिर और चौराहों पर नित,
ढोलक और करताल है बजता ।

लोक लुभावन लोक गान में,
नई ताजगी इस जान में,
जोगिड़ा सा रा रा रा के,
मन झूमते मधुर तान में ।

दहन होलिका की तैयारी,
मेला सा माहौल बलिहारी,
घर घर से चंदा लकड़ी का,
रतजग्गा भूल दुनियादारी ।

घर घर बनता पकवान यहाँ,
मालपुआ, गुजिया पान यहाँ,
क्या निर्धन क्या पैसे वाले,
रख एक दूजे का मान यहाँ ।

फिर रंगों की खेल अनोखा,
गिला नहीं, शिकवा न धोखा,
हर दुख दुविधा दूर वही क्षण,
रंग लागे हर एक को चोखा ।

पूरे गाँवों में घुम घुम,
बच्चे बूढ़े हैं मचाते धूम,
क्या भैया क्या भौजी, दादी,
सबको होली के रंग ले चुम ।

ढोलक, मृदंग, मंजीर बजा,
गाकर नाचे मस्ती है मजा,
जा द्वार द्वार खेले होली,
मांगे होली हर घर घर जा ।

हर एक रंगे इस होली में,
कोई घर में नचे कोई टोली में,
हर भेद भाव को भूल भला,
क्यों न गायें निज बोली में ।

जो गाँव की होली में है बात,
हैं कहाँ कहीं ऐसी सौगात,
दो चार मित्र, मेहमान बुला,
बीते होली के दिवस व रात ।

गाँव की होली असली होली,
अजब ठहाके गजब ठिठोली,
मस्ती में झूमे हर मन यूँ,
असली होली गाँव की होली ।

-प्रदीप कुमार साहनी

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