मेरे साथी:-

Thursday, May 31, 2012

***मुर्दा ***

जिन्दा तो हैं यहाँ
पर प्राण का नाम नहीं,
फिरते हैं यात्र-तत्र
बने जीवित मुर्दा;

कुंठित है सोच
अपंग क्रियाकलाप,
कलुषित है हर अंग
क्या नैन-मुख-गुर्दा |

एक धुंधली ज्योति
है लिए अंतरात्मा,
है उसे लौ बनाके
स्वयं को प्राण देना;

मुर्दा बनके जीना
मृत्यु से भी बद्तर,
है जीवित अगर रहना
बस यही ज्ञान लेना |

10 comments:

  1. ... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।

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    1. आभार संजय जी | आपके मेसेज तो रोज मिलते हैं|

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  2. बहुत बढ़िया प्रस्तुति,प्रभावशाली सुंदर रचना,,,,,

    RECENT POST ,,,, काव्यान्जलि ,,,, अकेलापन ,,,,

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  3. बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  4. सच !! मुर्दा बनकर जीना भी भला क्या जीना ..
    सार्थक अभिव्यक्ति..
    सादर

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  5. आपका धन्यवाद |

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