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Friday, January 7, 2011

विज्ञान

कलियुग को कलयुग है इसने बनाया, पुरे धरा पर बन बादल ये छाया |
आसान हुआ अब हरेक काम अपना, वह विज्ञान है जिसने सबकुछ रचाया |

मानव के मस्तिष्क की है यह उपज, छोड़ पैदल हमे उड़ना है सिखाया |
दबाव बटन काम हो जाये पूरा, वह विज्ञान है जिसने समय बचाया |

विद्युत् बनाकर किया स्वप्न पूरा, निशा को भी इसने दिवा है बनाया |
विकसित किये कई उद्योग धंधे, वह विज्ञान है जिसने पोषण कराया |

देवों की हस्ती कहाँ खो गयी अब? दुनिया में छाई अब इसकी ही माया |
धरती के भीतर छिपे भेद लाखों, वह विज्ञान है जिसने हल कर दिखाया |

संग फूलों के जैसे होते हैं कांटें, वैसे ही इसने विध्वंस भी कराया |
एटम बम जैसे कई शस्त्र रचकर, वह विज्ञान है जिसने संकट बढाया |

मशीनीकरण हुआ हर जगह अब, चल था जो कल, उसे निष्चल बनाया |
जीवन अनिश्चित हुआ संकटों से, वह विज्ञान है जिसमे अंत भी समाया |

यह विज्ञान क्या है ? एक तलवार है, जिसने दोनों तरफ एक-सा धार पाया |
रक्षा करो अपनी या खुद को काटो, यह उपयोग पर इसके निर्भर हो आया |
वह विज्ञान है जिसमे सबकुछ समाया |

( यह कविता भी मैंने स्कूल के समय ही लिखी थी )

कलम

(यह मेरी पहली कविता है | यह मैंने तब लिखी थी जब मैं आठवीं कक्षा में था| )

कलम शान है हम बच्चों की, छात्रों का हथियार है,
यही कलम दिलवाता सबको, सारा अधिकार है |

है कलम छोटा शस्त्र, पर इसकी शक्ति अपार है,
बड़े-बड़े वीर आगे इसके बन जाते चिड़ीमार हैं |

इसके बल पर मिट सकता जो फैला अनाचार है,
हरेक देश की गरिमा है यह, सबका जीवन सार है |

दीखता है छोटा लेकिन यह शिक्षा का भंडार है,
कलम से तुलना करने पर छोटा पड़ता तलवार है |

मान बचाने को कलम की, हम बिलकुल तैयार हैं,
इससे नाता जोड़ ले प्यारे हो सकता उद्धार है |

Monday, January 3, 2011

नए साल में

( सभी पंक्तियों का पहला अक्षर मिलाने पर "नया साल सबके लिए सुखद एवं मंगलमय हो" )

वरंग सी उमंग लिए,
या आसमान के जैसे खुले विचार;
सागर से भी गहरी सोच या,
श्कर लिए ख़ुशी का, गम दरकिनार|

रस कर इन चार लम्हों को,
रसती सावन की बूंदों का झार;
केंद्र में लिए लक्ष्य को अपने,
लिख दे हर दिल में बस प्यार ही प्यार|

क अकेला चल पथ में,
सुप्त पड़ जाये गर ये संसार;
बर दे सबको बस खुशियों भरा,
वा बन सबका, लगा दे पार|

कल व्यक्तित्व गर ढह भी जाये,
वंदन और पूजन न हो तार-तार;
मंगल पथ में कर मगल कर्म,
र आ भी जाये दुखते आसार|

य पर सीधा चलते चल,
र्म तब जानेगा जीवन के चार;
ह मान ले पथ में सिर्फ कांटें नहीं हैं,
होगा भला करले भला अपार|

Monday, December 13, 2010

कॉलेज के वो चार दिन

आज कभी जब तन्हाई में आँखें बंद मैं करता हूँ;
याद तो बरबस आ जाते हैं कॉलेज के वो चार दिन|

आधी बनी सी वो बिल्डिंग,ठक-ठक करती वो आवाजें;
नये-नवेले वो अगणित चेहरे,बनती बिगड़ती जज्बाते|

पूरा सेमेस्टर मस्ती करना,लास्ट मोमेंट की रतजग्गी;
रिजल्ट के दिन वो छटपटाना,दिल में उठती अगलग्गी|

कॉलेज जाके बंकिग करना,केंटिन में वो गपबाजी;
ईंट्रो देना ईंट्रो लेना,कभी-कभी वो रँगबाजी|

ग्रुप बना के घुमना फिरना,ग्रुप में जाना परवाना;
आँख में आँसू ला देते हैं,कॉलेज के वो चार दिन|

कभी-कभी वो नारेबाजी,बात-बात पे वो हड़ताल;
कभी-कभी वो सिर फुटोव्वल,पुलिस वालों की वो पड़ताल|

कमरे में वो रात का जगना,ताश के पत्तों का बिखराव;
कम्प्यूटर के वो गेम का लत,एक दूजे का रख-रखाव|

फोन पे घन्टों बातें करना,सबकी करना टाँग खिंचाई;
हरपल को महका जातें हैं,कॉलेज के वो चार दिन|

ऑफ केम्पस के हसीन से सफर,फंक्शन का वो डाँस कराना;
चाय दुकान पे हो-हल्ला और रेस्त्राँ में बर्थ डे मनाना|

आज कहाँ अब किसको फुरसत और कहाँ अब अपनी किस्मत;
कॉलेज के वो लम्हें तो बस यादों में ही सिमटे हैं|

याद कर उनको आँख छलकती,दिल भी तो भर जाता है;
जेहन में हरवक्त जियेंगे,कॉलेज के वो चार दिन|

Saturday, September 4, 2010

मैं

दोस्तों की दोस्ती, यारों का यार भी हूँ,
दिल से चाहने वाले का प्यार भी हूँ,
हर शख्स, हर अक्स मेरी नज़रों में है,
आँखों की नमी, होठों की हंसी, और सपनों का चौकीदार भी हूँ |

इस जहाँ में करोड़ों में एक आशियाँ मेरा भी है,
सबके बीच इस जहाँ में एक जहाँ मेरा भी है;
मेरे भी कुछ सपने हैं, मेरे भी कुछ अपने हैं,
रंग बिरंगे गुलशन में एक गुलिश्तां मेरा भी है |

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-प्रदीप