(डायरी से एक और रचना, कॉलेज के शुरूआती दिनों की |)
मेरी कल्पना कल्पना ही रही शायद,
हकीकत न उसको कभी बना सका मैं;
चाहा तो बहुत इस दिल ने मगर,
कल्पना को अपने न अपना सका मैं |
की थी कल्पना इस दिल ने कभी,
मन में कल्पना के बादल बना रहा था मैं;
कल्पना को जामा हकीकत का दूंगा,
सोच दिए ख़ुशी के जला रहा था मैं |
कल्पना ही कल्पना अपने मन में लिए,
सफ़र पर कुछ करने को निकला था मैं;
आसान नहीं है यह डगर कल्पना का,
पर आसान बनाने को निकला था मैं |
कल्पना के पथ में है दीवार आई,
किस्मत का साथ भी खोने लगा हूँ मैं;
तोडूं दीवार को उस पार मैं जाऊं,
पर कैसे मैं जाऊं, सोच खोने लगा हूँ मैं |
मैंने कल्पना की, पर ऐसी भी न की,
कि उड़कर गगन को कभी धर लूँगा मैं;
छोटी सी कल्पना पूरी करने की तमन्ना,
क्या कल्पना की कल्पना मन से हर लूँगा मैं ?
मेरी कल्पना सिर्फ एक कल्पना नहीं है,
यह कहकर खुद को ढाढस दिला सकता मैं;
साथ गर दिया परिस्थितियों ने मेरा,
हकीकत भी उसको बना सकता मैं |
09.12.2003