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Monday, November 4, 2013

हाय रे किस्मत ! (हास्य कविता)

(डायरी से हास्य रस की एक रचना)

किस्मत के खेल में जाने
कितनी ही बार
मेरी आँखें चार हो गई |
सुना था प्यार
बहुत खाश है लेकिन
मेरे लिए ये बात, आम हो गई |

एक बार एक नवयौवना से
पाला पड़ गया,
आँखों में उसके प्यार नजर आया |
पीछे उसके बहुत भागा
पर वो लम्बे बालों वाला छिछोरा था
बाद में नजर आया |

एक सुंदरी बगल से गुजरी,
आँखों के इशारे से
कुछ कहती चली थी |
पीछे कुछ लोग दौड़े
पता चला वो पागलखाने से
भागी हुई पगली थी |

हसीना के हसीं अदाओं ने
एक बार मुझे
पागल कर डाला |
जब सोचा कि उसे
आई लव यू कहूँगा
कमबख्त ने अपना मंगलसूत्र दिखा ड़ाला |

मैंने जिसको दिल से चाहा
उसने कहीं और घर बसाया
पर मैंने शिकवा नहीं किया |
दिल तो तब जला
जब उसके बच्चे ने
आकर मुझे मामा कह दिया |

पसंद आई थी जो मुझे
कुछ और नहीं
सेमसंग की टीवी निकली |
समझ के बैठा था
जिसे अपनी मोहब्बत
वो किसी और की बीवी निकली |

वह रोज आती थी
मुस्कुराती थी,
फिर आहट हुआ, लगा वो आई |
वो तो आई
पर मरम्मत करने
साथ में बाप और भाई को भी लाई |

देखकर उसका रंग-रूप,
आवाज उसकी सुनने को
मैं बेताब हो चला |
वो घडी आई
उसने देखकर मुझे लब खोल
पर उसके मुंह से "भैया" निकला |

किस्मत का रोना किसे सुनाएँ
और क्या गाएं
कुछ कहा नहीं जाता है |
ऐसे-ऐसे मौके आये
कि ये दीवाना बस
हाय रे किस्मत ! कह पाता है |

15.01.2005 

Friday, November 1, 2013

एक दर्द-सा दिल में है कोई

(डायरी से एक और रचना )

होठों पे मुस्कान तो है,
पर आँखों में वो नूर नहीं;
कहने को सबकुछ है मगर,
न जोश जीने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

हंसी के स्वर भी आते तो हैं,
पर चेहरे में वो बात नहीं;
एक जाम सामने है मगर,
न होश पीने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

हर बात खाश ही होती है,
फिर भी लगता कुछ ख़ास नहीं;
मंजिल भी लगती दूर मगर,
न शौक चलने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

कहने को तो सरताज हैं हम,
पर सर पे कोई ताज नहीं;
वो शमाँ सामने है मगर,
न मजा जलने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

खुशियों का एहसास भी है,
अरसों से गम का साथ नहीं;
सपनों के पंख भी लगे मगर,
न चाह उड़ने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

अपनों का तो ये साथ भी है,
पर भरा हुआ ये हाथ नहीं;
हर तरफ अँधेरा है मगर,
न सजा डरने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

29.02.2008

Tuesday, October 29, 2013

जाऊं कहाँ ?

(डायरी से एक और रचना )

आजमा के देखे लाखों तरीके,
पर बेकरारी दिल की मिटती ही नहीं,
सुकून देने दिल को, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

चारो तरफ तो बस हैं, अपने ही अपने,
अपनों की भीड़ में ही खो गया हूँ शायद,
खुद को ढूंढ लाने, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

जिंदगी ही जब उतरे, बेवफाई पे यारों,
तो और कोई मुझसे वफ़ा क्या करे,
बेवफा जिंदगी को छोड़, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

लकीरें ही हाथ की अपनी नहीं है शायद,
किस्मत भी अब ठोकर लगाये तो क्या,
खोटी किस्मत के साथ, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

आँखों की चमक अब दिखती ही नहीं,
उमंगें भी दिल की कहीं खो गई हैं,
रौशनी की खोज में, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

होठों से मुस्कान कभी गई नहीं मेरी,
पर ख़ुशी भी तो कभी मिली ही नहीं,
गम लेकर दिल में, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

आँखों के आंसू उसके थमते नहीं है,
आंसुओं का ज्यों कोई सैलाब उमड़ा हो,
इस बाढ़ से बचकर, जाऊं तो जाऊं कहाँ ?

30.07.2005 

Friday, October 25, 2013

वरदान

(डायरी से एक और रचना आप सब से साझा कर रहा हूँ | हर पंक्तियों का पहला अक्षर मिला के किसी के लिए कुछ सन्देश भी था इसमें, स्वयं देख लें |)

माना नहीं आसान,
ए पथ जीवन के;
सीरत में प्यार ही,
सान सफ़र बनाता है |

श्वर की नेमत या,
गन ये पूजा की;
रदान ये अपार,
युगों से कहलाता है |

भेजा गया स्वर्ग से,
रिश्तों में सिरमौर ये;
न की गहराइयों में,
रम पद ये पाता है |

मेल का न ढोंग न,
रीतियों की दीवार;
जिंदगी ही बस यहाँ,
या पात्र बनाता है |

गीत-प्रीत मन का,
तेज इसमें सूर्य का;
रीति-रिवाज बस दिल का,
है प्रेम में बस जाता है |

22.02.2004 

Thursday, October 24, 2013

"आशा किरण"

आँखों की गहराइयों में, मधुर स्वप्न लेकर;
इस अँधेरी दुनिया में, चलने चला हूँ मैं |

अँधेरे मन में, आशा किरण लेकर;
कष्टों की गोद में, पलने चला हूँ मैं |

अंतर्मन की आवाज, सुनता नहीं है कोई;
सुन लिया है मैंने, समझने चला हूँ मैं |

जानता हूँ ये जीवन, संघर्ष है लेकिन;
संघर्ष से संघर्ष, करने चला हूँ मैं |

आलोक का अस्तित्व, परे हो गया है;
पूंज की पर खोज, करने चला हूँ मैं |

भगवान् की कृति, इस संसार में कोई;
इंसानियत है भी, देखने चला हूँ मैं |

देखा लिया है मैंने, करीब से फिर भी;
जीवन के सफ़र में, बढ़ने चला हूँ मैं |

चारों तरफ है देखा, बस तम का वर्चस्व;
पर आशा की किरण, लाने चला हूँ मैं |

इस अँधेरी दौड़ में, खो गया हूँ शायद;
अस्तित्व की पहचान अब, करने चला हूँ मैं |

कठिनाइयों को देख, न हुआ कभी नत मैं;
मृत पथ में प्राण, अब भरने चला हूँ मैं |

सोच मेरा ऐसा, दिवा-स्वप्न जैसा;
उसको भी साकार करने चला हूँ मैं |

चिंता सर से विन्ध, हो गया हताहत;
पर वेदना को पर, हरने चला हूँ मैं |

दिख रहे दो नयन, लिए जल की छलक;
नयनों का वो जल, सोखने चला हूँ मैं |

आँखों से प्रतिपल, अश्रु की ही धारा;
मोतियों का बहाव, रोकने चला हूँ मैं |

पड़ रही है मुझ पर, आशा भरी नजर;
निराशा न मिले, सोचने चला हूँ मैं |

प्रेम-पथ में शत-शत, कांटे बिछे पड़े;
पर राह पर उसकी, चलने चला हूँ मैं |

ये पथ है न रक्षित, न है जाना सरल;
अगम्य पथ पर अजेय, होने चला हूँ मैं |

गहराई कभी न देखी, इस दरिया की लेकिन;
चाहत में राहत की, कूदने चला हूँ मैं |

कह गए हैं लोग, मंजिल है निराशा;
मुश्किल ये वजन पर, ढोने चला हूँ मैं |

अंतर से निकली उसकी, करुण पुकार सुन;
वर्णित का वरण, करने चला हूँ मैं |

चार दिन का जीवन, चार क्षण का सुख;
ये चार पल की खुशियाँ, समेटने चला हूँ मैं |

वक़्त के ही साथ-साथ, हैं सब चल रहे;
वक़्त की रफ़्तार अब, पकड़ने चला हूँ मैं |

पथ में "प्रदीप", बहुत दूर है लेकिन;
देखकर उसको ही, छूने चला हूँ मैं |

दुःख के तरु में, सुख का एक फल;
उस फल को पाने, चढ़ने चला हूँ मैं |

थक कर न हारे, पथिक कोई पथ में;
आशा का प्रलोभन, देने चला हूँ मैं |

शिला-सी जमी हुई, मनःस्थिति सबकी;
भ्रम मैं अब सबका, तोड़ने चला हूँ मैं |

वृन्तों का है झुण्ड, छाया नहीं फिर भी;
छाँव दे वो पौधा, लगाने चला हूँ मैं |

दिक्भ्रांत होकर, मौत में हैं जीते;
सत्य मार्ग पर वापस, आने चला हूँ मैं |

अंत तक पथ में, निराश ही मिले;
आशा का न दामन, छोड़ने चला हूँ मैं |

तम का ये बदल, छंटे न या छंटे;
पर आशा की किरण, लाने चला हूँ मैं |

22.02.2004

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-प्रदीप