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Sunday, February 7, 2016

आयेंगे ऋतुराज बसंत

खिल गए सरसों पीले पीले,
पीत रंग में रंगी धरा है,
वृक्षों में नव कोंपल फूटे,
पुनः यहाँ सब हरा भरा है ।

पतझड़ के वे रुखे से पल,
हो चला अब उसका अंत,
प्रकृति सत्कार में जुटी,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

कामदेव के पुत्र बसंत का,
आना सरस, सुखद संयोग है,
कंपकंपाती शीत ऋतु का,
हम सबसे मीठा वियोग है ।

मानो ज्यों श्रृंगार कर लिया,
धरनि ने अद्भूत अनंत,
कोकिल स्वागत गान है गाती,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

आम्र बौरों से लदने आतुर,
पुष्प खिले चहुँ ओर यहाँ हैं,
हिम पिघल कर चरण पखारे,
ऐसी किसकी शान कहाँ है ?

पवन देव स्वयं झूला झुलावे,
ये ऋतुओं में है महंत,
हरियाली चहुँओर शोभती,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

वर्ष पुराना खोल के चोला,
बदलेगा नव वर्ष में अब तो,
खुशियों के त्योहार सजेंगे,
तन मन होंगे हर्ष में अब तो ।

माघ मास की शुक्ल पंचमी,
चेतन बन होगा जड़ंत,
सोलह कला में खिलि प्रकृति,
आयेंगे ऋतुराज बसंत ।

-प्रदीप कुमार साहनी

**कवि की दशा** (हास्य कविता)

वह कवि है,
हाहाकार है,
डरते हैं बच्चे,
बस नाम से उसके ।

सोता नहीं जब रात में,
कहती उसकी माँ,
सोता है या बुलाऊँ,
जगा होगा वो कवि,
बच्चा खुद ब खुद,
सो जाता है यूँ ही ।

बुजुर्ग भी अकसर,
कतराते हैं उससे,
कतराना क्या है जी,
घबराते हैं उससे,
डरते हैं सोचकर,
छोड़ न दे कहीं,
कविता रुपी बम कोई ।

हमउम्र भी अकसर,
मिलते नहीं दिल से,
काम का बहाना कर,
खिसकते ही जाते ।
हाफिज सईद से ज्यादा,
इससे सिहरते जाते ।

पर उसको नहीं है गम,
आखिर वो कवि है,
जिह्वा में सदैव,
कविता है बसती,
अधर जब फड़फड़ाये,
कविता है झड़ती ।
आतुर रहता सदैव,
सुनाने अपनी रचना,
पकड़ पकड़ कर अकसर,
वो सुनाता भी है ।

बीच चौपाल में अकसर,
बिना चेतावनी दिए ही,
जब शुरु कर देता है,
काव्य पाठ अपना ,
बच बचाकर लोग,
तब फूटने हैं लगते ।
गिरते-पड़ते इधर उधर,
सरकने हैं लगते ।

पर अब कला उसकी,
पहचान में है आई,
अकसर लोग उसको,
अब बुलाते भी हैं,
भीड़ हो या जाम हो,
या कैसा भी रगड़ा हो,
तीतर बितर करने को,
उसकी सुनवाते भी हैं ।

बच्चे को सुलाना हो,
या भीड़ को भगाना हो,
हर काम में उसको,
याद करते हैं लोग ।

वो बस सुनाता है,
दिल की दिल में गाता है,
कविताएँ ही बनाता है,
जिस किसी भी रुप में,
भावनाएँ बहाता है,
आखिर वो कवि है ।
वो एक कवि है ।

(कृपया हास्य रूप में ही लें)

-प्रदीप कुमार साहनी

Sunday, January 31, 2016

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है

गुमसुम सा ये शमाँ क्यों है,
लफ्जों में धूल जमा क्यों है,
आलम खामोशी का कुछ कह रहा,
अपनी धुन में सब रमा क्यों है..

डफली अपनी, अपना राग क्यों है,
मन में सबकी एक आग क्यों है,
कशमकश में है हर एक शख्स यहाँ,
रिश्तों में अब घुला झाग क्यों है..

हर आँख यहाँ खौफ जदा क्यों है,
मुस्कुराने की वो गुम अदा क्यों है,
भीड़ में रहकर खुद को न पहचाने,
खुद से ही सब अलहदा क्यों है..

एक होकर भी वो जुदा क्यों है,
आत्मा देह में गुमशुदा क्यों है,
पाषाण सा हृदय हो रहा है सबका,
तमाशबीन देख रहा खुदा क्यों है..

"प्रदीप कुमार साहनी"

Friday, January 29, 2016

रुसवा होता गया

तू होती गई जब दूर मुझसे,
मैं तुझमे ही और खोता गया,
भीड़ बढ़ती गई महफिल में,
मैं तन्हा और तन्हा होता गया ।

तू खुद की ही करती रही जब,
मैं तेरे ही सपने पिरोता गया,
तू खुशियों में नाचती गाती रही,
मैं तो याद कर तुझे रोता गया ।

मशहूर कर दिया तुझे जमाने में,
मैं खुद गुमनाम यूँ होता गया,
तू समझ बैठी मुझे नाकाबिल तेरे,
मैं काबिलियत अश्कों में डुबोता गया ।

शान से चल पड़ी तू छोड़कर मुझे,
मैं बेवफाई को तेरे भिंगोता गया,
रुसवाई तेरी तो रोक दी मैने ऐ "दीप",
पर बदले में खुद रुसवा होता गया ।

Wednesday, January 27, 2016

कैसा तेरा प्यार था

(तेजाब हमले के पीड़िता की व्यथा)

कैसा तेरा प्यार था ?
कुंठित मन का वार था,
या बस तेरी जिद थी एक,
कैसा ये व्यवहार था ?

माना तेरा प्रेम निवेदन,
भाया नहीं जरा भी मुझको,
पर तू तो मुझे प्यार था करता,
समझा नहीं जरा भी मुझको ।

प्यार के बदले प्यार की जिद थी,
क्या ये कोई व्यापार था,
भड़क उठे यूँ आग की तरह,
कैसा तेरा प्यार था ?

मेरे निर्णय को जो समझते,
थोड़ा सा सम्मान तो करते,
मान मनोव्वल दम तक करते,
ऐसे न अपमान तो करते ।

ठान ली मुझको सजा ही दोगे,
जब तू मेरा गुनहगार था,
सजा भी ऐसी खौफनाक क्या,
कैसा तेरा प्यार था ?

बदन की मेरी चाह थी तुम्हे,
उसे ही तूने जला दिया,
आग जो उस तेजाब में ही था,
तूने मुझपर लगा दिया ।

क्या गलती थी मेरी कह दो,
प्रेम नहीं स्वीकार था,
जीते जी मुझे मौत दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

मौत से बदतर जीवन मेरा,
बस एक क्षण में हो गया,
मेरी दुनिया, मेरे सपने,
सब कुछ जैसे खो गया ।

देख के शीशा डर जाती,
क्या यही मेरा संसार था,
ग्लानि नहीं तुझे थोड़ा भी,
कैसा तेरा प्यार था ?

अब हाँ कह दूँ तुझको तो,
क्या तुम अब अपनाओगे,
या जो रूप दिया है तूने,
खुद देख उसे घबराओगे?

मुझे दुनिया से अलग कर दिया
जो खुशियों का भंडार था,
ये कौन सी भेंट दी तूने,
कैसा तेरा प्यार था ?

दोष मेरा नहीं कहीं जरा था,
फिर भी उपेक्षित मैं ही हूँ,
तुम तो खुल्ले घुम रहे हो,
समाज तिरस्कृत मैं ही हूँ ।

ताने भी मिलते रहते हैं,
न्याय नहीं, जो अधिकार था,
अब भी करते दोषारोपण तुम,
कैसा तेरा प्यार था ?

क्या करुँ अब इस जीवन का,
कोई मुझको जवाब तो दे,
या फिर सब पहले सा होगा,
कोई इतना सा ख्वाब तो दे ।

जी रही हूँ एक एक पल,
जो नहीं नियति का आधार था,
करती हूँ धिक्कार तेरा मैं,
कैसा तेरा प्यार था ?

-प्रदीप कुमार साहनी

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