मेरे साथी:-

Wednesday, November 13, 2013

बस एक उसका साथ

ख़ुशी मिले या गम मिले,
मुश्किल चाहे हरदम मिले,
हर राह में मुझको मिल जाये,
बस एक उसका साथ |

जीवन पथ पर सिर्फ कांटें हों,
चाहे चहुँ और सन्नाटे हों,
सिर्फ एक फूल बस मिल जाये,
बस एक उसका साथ |

खतरों से भरा गलियारा हो,
चाहे बेहद अंधियारा हो,
बस एक चीज़ बस नजर आये,
बस एक उसका साथ |

हो ख़ुदा बड़ा बेदर्द बड़ा,
चाहे दे मुझको दर्द बड़ा,
बस एक दुआ बस दे जाये,
बस एक उसका साथ |

किस्मत का भी साथ न हो,
चाहे अपनों का हाथ न हो,
एक साथ बस मुझे मिले,
बस एक उसका साथ |

मंजिल भले ही दूर लगे,
चाहे बोझ भरपूर लगे,
कुछ और नहीं बस मिल जाये,
बस एक उसका साथ |

हर कष्ट यूँही सह सकता हूँ,
कुछ भी चाहे कर सकता हूँ,
बस वो मिले और मिल जाये,
बस एक उसका साथ |

01.03.2008

Saturday, November 9, 2013

तू कौन ?

(डायरी से सौन्दर्य रस की एक रचना )

बिजली गिराती हैं तेरी अदाएं,
ख़ुदा ने जो भेजा वो नूर हो तुम;
देख ही बस सकता, छूना भी मुश्किल,
पहुँच से सबकी बहुत दूर हो तुम |

आँखों में चमक, होंठों पे मुस्कान,
दिल में उमंग लिए सुरूर हो तुम;
देखकर तुझको यूँ लगता है ऐसे,
आसमान से उतरी कोई हूर हो तुम |

भोली छवि होगी, सोचा था हमने,
पर अलग छवि लिए इत्तफाक हो तुम;
कुदरत ने बनाया, कुछ ऐसा ही तुमको,
कह नहीं सकता कोई ख़ाक हो तुम |

अंदाज-ऐ-बयां तुमको कुछ ऐसा मिला,
दिल से निकली हुई आवाज हो तुम;
रहस्यों का सागर अपने दिल में लिए,
सबके लिए खुद ही एक राज हो तुम |

सरल नहीं हरदम, छेड़ना जिसको,
संगीत का ऐसा ही एक राग हो तुम;
छूने से जिसको, पिघल जाये पत्थर,
सचमुच में वो ठंडी आग हो तुम |

दिल में लिए कई मचलते अरमाँ,
जो तुम हो नहीं कोई और हो तुम;
मधुर स्वप्न लेकर आँखों में कई,
राह में बढ़ी, नया दौर हो तुम |

( कॉलेज में एक लड़की ने कहा कि बहुत कविता लिखते हो, मेरे ऊपर कोई कविता लिखो | मैंने फिर ये कविता लिखी | पर पढने के बाद लगा की कुछ ज्यादा हो गया, इसलिए उसे सुनाया नहीं और कहा कि मैं लिख नहीं पाया )

27.09.2004

Wednesday, November 6, 2013

कल्पना

(डायरी से एक और रचना, कॉलेज के शुरूआती दिनों की |)

मेरी कल्पना कल्पना ही रही शायद,
हकीकत न उसको कभी बना सका मैं;
चाहा तो बहुत इस दिल ने मगर,
कल्पना को अपने न अपना सका मैं  |

की थी कल्पना इस दिल ने कभी,
मन में कल्पना के बादल बना रहा था मैं;
कल्पना को जामा हकीकत का दूंगा,
सोच दिए ख़ुशी के जला रहा था मैं |

कल्पना ही कल्पना अपने मन में लिए,
सफ़र पर कुछ करने को निकला था मैं;
आसान नहीं है यह डगर कल्पना का,
पर आसान बनाने को निकला था मैं |

कल्पना के पथ में है दीवार आई,
किस्मत का साथ भी खोने लगा हूँ मैं;
तोडूं दीवार को उस पार मैं जाऊं,
पर कैसे मैं जाऊं, सोच खोने लगा हूँ मैं |

मैंने कल्पना की, पर ऐसी भी न की,
कि उड़कर गगन को कभी धर लूँगा मैं;
छोटी सी कल्पना पूरी करने की तमन्ना,
क्या कल्पना की कल्पना मन से हर लूँगा मैं ?

मेरी कल्पना सिर्फ एक कल्पना नहीं है,
यह कहकर खुद को ढाढस दिला सकता मैं;
साथ गर दिया परिस्थितियों ने मेरा,
हकीकत भी उसको बना सकता मैं |

09.12.2003

Monday, November 4, 2013

हाय रे किस्मत ! (हास्य कविता)

(डायरी से हास्य रस की एक रचना)

किस्मत के खेल में जाने
कितनी ही बार
मेरी आँखें चार हो गई |
सुना था प्यार
बहुत खाश है लेकिन
मेरे लिए ये बात, आम हो गई |

एक बार एक नवयौवना से
पाला पड़ गया,
आँखों में उसके प्यार नजर आया |
पीछे उसके बहुत भागा
पर वो लम्बे बालों वाला छिछोरा था
बाद में नजर आया |

एक सुंदरी बगल से गुजरी,
आँखों के इशारे से
कुछ कहती चली थी |
पीछे कुछ लोग दौड़े
पता चला वो पागलखाने से
भागी हुई पगली थी |

हसीना के हसीं अदाओं ने
एक बार मुझे
पागल कर डाला |
जब सोचा कि उसे
आई लव यू कहूँगा
कमबख्त ने अपना मंगलसूत्र दिखा ड़ाला |

मैंने जिसको दिल से चाहा
उसने कहीं और घर बसाया
पर मैंने शिकवा नहीं किया |
दिल तो तब जला
जब उसके बच्चे ने
आकर मुझे मामा कह दिया |

पसंद आई थी जो मुझे
कुछ और नहीं
सेमसंग की टीवी निकली |
समझ के बैठा था
जिसे अपनी मोहब्बत
वो किसी और की बीवी निकली |

वह रोज आती थी
मुस्कुराती थी,
फिर आहट हुआ, लगा वो आई |
वो तो आई
पर मरम्मत करने
साथ में बाप और भाई को भी लाई |

देखकर उसका रंग-रूप,
आवाज उसकी सुनने को
मैं बेताब हो चला |
वो घडी आई
उसने देखकर मुझे लब खोल
पर उसके मुंह से "भैया" निकला |

किस्मत का रोना किसे सुनाएँ
और क्या गाएं
कुछ कहा नहीं जाता है |
ऐसे-ऐसे मौके आये
कि ये दीवाना बस
हाय रे किस्मत ! कह पाता है |

15.01.2005 

Friday, November 1, 2013

एक दर्द-सा दिल में है कोई

(डायरी से एक और रचना )

होठों पे मुस्कान तो है,
पर आँखों में वो नूर नहीं;
कहने को सबकुछ है मगर,
न जोश जीने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

हंसी के स्वर भी आते तो हैं,
पर चेहरे में वो बात नहीं;
एक जाम सामने है मगर,
न होश पीने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

हर बात खाश ही होती है,
फिर भी लगता कुछ ख़ास नहीं;
मंजिल भी लगती दूर मगर,
न शौक चलने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

कहने को तो सरताज हैं हम,
पर सर पे कोई ताज नहीं;
वो शमाँ सामने है मगर,
न मजा जलने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

खुशियों का एहसास भी है,
अरसों से गम का साथ नहीं;
सपनों के पंख भी लगे मगर,
न चाह उड़ने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

अपनों का तो ये साथ भी है,
पर भरा हुआ ये हाथ नहीं;
हर तरफ अँधेरा है मगर,
न सजा डरने में है कोई |
एक दर्द-सा दिल में है कोई |

29.02.2008

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