मेरे साथी:-

Wednesday, January 19, 2011

एक अलग दुनिया

सोचता हूँ बस जाए अपनी एक अलग दुनिया,
जहाँ बस अपने हो,प्रेम हो,सौहार्द हो।
न कोई त्रस्त हो न कोई भ्रष्ट हो,
न कोई दगा दे,न कोई सजा दे,
न कोई नेता न राजनीति हो,
न कोई पुलिस न हो कोई कानून,
अपनत्व की धारा हो,
सब एक दूसरे का सहारा हो।
अपनो का साथ हो, सिर में बड़ों का हाथ हो।
उज्ज्वलता ही चारों ओर हो, पँछियों का कर्णप्रिय शोर हो,
जिन्दगी खुशहाल रहे, हर आशायें बहाल रहे;
संजीदगी से जीवन-यापन करे हर कोई,
बैर-वैमनस्य का कहीं कोई नाम न हो।
वह दुनिया हो, हसीन वह दुनिया हो मलिन,
ऐसे ही हो मेरी एक अलग दुनिया।

Saturday, January 8, 2011

पहली मुलाकात

( अपनी धर्म पत्नी, अपने प्यार के साथ पहली मुलाकात के वास्तविक पल को मैंने कविता के रूप में लिखने कि कोशिश कि है, पता नहीं मेरी कोशिश कहाँ तक सफल हुई है  )

दिल में बसी थी एक सूरत, होठों पे एक नाम था;
वास्तविकता से कुछ परे नहीं था, फिर भी मैं अनजान था |

मन में कई उन्माद थे, दिल में भी एक जूनून था;
ऑंखें दो से चार कब होंगी, सोच कर न सुकून था |

बस एक छवि है जिसकी देखि, वास्तविकता उसकी क्या होगी;
कुछ खुशियाँ तो कुछ उलझन भी थे, प्रतिक्रिया उसकी क्या होगी |

कशमकश में ही रात कटी थी, आने वाली सौगात जो थी;
पल-पल भी मुश्किल हो चल था, होने वाली मुलाक़ात जो थी |

शमाँ भी कुछ अजीब-सा था, जिंदगियों का वहां झोल था;
रेलगाड़ियों का ही शोर था, वह स्टेशन का माहौल था |

सुबह का खुशनुमा वक़्त था, रंगीला मौसम चहुँ और था;
तनहाइयाँ नहीं, बस भीड़ थी, पर न जाने वो कीस ओर था |

धड़कने तो तेज उधर भी होंगी, लब भी उनके फड़फड़ाते होंगें;
पहली मुलाकात ये कैसी होगी, सोच के वो भी घबराते होंगे |

ये सोच के मैं दिल ही दिल में, दिल को तसल्ली देता था;
घबराहट कहीं सामने न आये, धडकनों को यूं समझाता था |

वो घडी तब आ ही गयी, चितचोर थे जो सामने आते;
अब तक जिसे बस दिल में देखा, वो आँखों के सामने आते |

धडकनों को तेज होना ही था, मन भी तब कुछ घबराया;
होठों पे मुस्कराहट थी आई, पहली मुलाकात का वक़्त जब आये |

हजारों के बीच जब उनको देखा, हम वही बस ठिठक से गए;
उनकी नज़रें भी मुझपे पड़ी, ओर उनके कदम भी रुक से गए |

नज़रों से नज़र का सामना जब हुआ, दिल में अजीब एक हुक सा लगा;
हजारों नहीं, बस हम ओर वो थे, दो पल के लिए कुछ ऐसा लगा |

उन भूरी आँखों में बस गहराई थी, उन गहराइयों में बस प्यार था;
फूलों से भी कोमल लब थे, मुस्कान का उनमे भण्डार था |

मुस्कुराता हुआ वो भोला चेहरा, जिसे अब तक था दिल में छुपाया;
जो कुछ भी था हमने सोचा, दिल ने तो कुछ बढ़कर पाया |

हाथों का स्पर्श जब हुआ, खुशियों के बादल छा गए;
नज़रें उनकी देख कर लगा, प्यार के बरसात आ गए |

कानों कि प्रतीक्षा भी टूटी, लब भी उनके खुल ही गए;
दिल कि बात को दिल ही दिल में, वो हमसे सब बोल ही गए |

थोड़ी -सी शर्म, थोड़ी-सी हया, घबराहट में उनके वो बोझिल कदम;
साथ-साथ हम चल ही पड़े थे, ये साथ निभाना है हरदम |

दिल से दिल का था रिश्ता पुराना, आँखों से आँखों कि थी पहली मुलाकात;
बातें तो कुछ खाश ना हुई, पर दिल ने किये हजारों बात |

ऐसे ही कुछ अजीब-सी थी, प्यार से वो पहली मुलाकात;
खुशियों का सागर छलका था, मचले थे दिल के जज्बात |

खाश न होकर भी खाश थी, पहली मुलाकात का वो पल;
जिंदगी के हर एक मोड़ पर, याद आएगा वो हर पल |

Friday, January 7, 2011

आशातीत

तेज हवा के झोंको में बैठा, जब पत्तियों को इनके साथ उड़ते देखता हूँ;
सोचता हूँ काश !
पत्तियों की तरह हवा के साथ मैं भी उड़ पाता |

चांदनी रात में खामोश बैठा, जब धरती को रौशनी में नहाये देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
ऐसी ही धवल उज्ज्वलता मैं भी सबको दे पाता |

राहों में जब चलते-चलते वृक्षों को मदमस्त हो लहराते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
सभी ग़मों को भूल ख़ुशी में, मैं भी ऐसे ही लहरा पाता |

राह के अँधेरे में जब आसमान में तारों को टिमटिमाते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
इस बोझिल जिंदगी का चोला उतार, मैं भी आसमान में टिमटिमा पाता |

सोती-जागती आँखों से जब, कई सुनहरे और चल सपने देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
सपनों कि मानिंद जिंदगी को भी, ऐसे ही साकार कर पाता |

नज़रों के सामने झुरमुठों में, पक्षियों को जब किलोलें करते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
अपना भी जीवन इनकी तरह, चंद लम्हों का खुशियों से भरा हो पाता |

निर्जीव-सा पड़ा हुआ, आँखों को मूँद सुन्या में देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
खुद में भी ऐसी शक्ति होती कि आशातीत कि आशा कभी न कर पाता |

वो आँखें

वो आँखें झील की जैसी, प्यार ही प्यार है जिसमे,
अपनत्व की उमड़ती धारा, उसमे ही तकदीर नज़र आती है |

भोली-भाली सी आँखें, बोझिल होती सपनो के भार से,
प्यार के जल की छलक जिसमे, उसमे ही तस्वीर नज़र आती है |

आकान्छाओं से भरी वो आँखें, लेकर तमन्नाओ का सागर,
चाहत पूरा करने की जिसमे, उसमे कल्पना की ज़ंजीर नज़र आती है |

मोतियाँ ढ़ोती वो भीगी आँखें, कुछ कहने को उतावली-सी,
दिल की बातों का पुलिंदा लिए, उसमे इशारों की तफ़सीर नज़र आती है |

खुलती बंद होती सी पलकें, होठों की मुस्कराहट को समेटे,
खुशियों को पाकर खुश होती, उसमे अपनों की तहरीर नज़र आती है |

जीवन रस से भरी आँखें, देखकर ही जिसे जीवन मिल जाये,
जीने की चाहत-सी जगाती, उसके बिना जिंदगी गैरहाज़िर नज़र आती है |

आधुनिकता

आधुनिक बनने कि होड़ में, भूल गए हम नैतिक मूल्यों को ;
पूरखों से आ रही शिक्षा को, भूल गए हम शिष्टता और मानवता को |

चाहा था जिसे पूर्वजों ने कभी, पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता ही जाये ;
अफ़सोस ! न समझे, हम नासमझ, लात मारी किया दूर उन रत्नों को |

रहने का ढंग, बोलने का चलन, पहनावा आदि कई जीवन के रंग ;
बद से भी बदतर हुए जा रहे, फिर भी है न होश हम अनजानों को |

गीता के मर्म भी हमे दिखते नहीं, राम-जीवन का गुढ़ भी नहीं है पता ;
दुनिया संग हम भी चकाचौंध के मारे, क्या हो रहा है ये खबर किसको ?

छाता है बादल आसमान पर भी, पर रहता नहीं वह सदा के लिए ;
पर आधुनिकता जो छाया है हम पर, बड़ा मुश्किल हटाना है इस बादल को |

कल तक जिसे थे अनैतिक समझते, उसको भी इसने जायज कर दिया ;
कुछ भी करते हैं नाम इसका लेकर, ताक में रख कर अपनी संस्कृति को |

चादर को ओढ़ आधुनिकता की, अंधों की दौड़ में दौड़े जा रहे ;
खड्ड में जा गिरे या हो अपना पतन, भाई मोडर्न हैं ! रोको मत हम दीवानों को |

मोडर्न ! मोडर्न ! सब चीखे जा रहे, मृगतृष्णा के पीछे चले जा रहे ;
पर अब तक किसी ने भी देखा नहीं, क्या खो रहे हम और इसकी कीमत को |

अजनबी

सफ़र पर न जाने था कब से अकेला, चारों तरफ बस वीराना ही था |
पल-पल बिताना भी था अति दुष्कर, फिर भी मैं मंजिल को भूला न था |

मंजिल को पाने की चाहत में मैं, काँटों के पथ पे भी चलता रहा |
सपनो को अपने संजोये हुए, कदम दर कदम मैं बढ़ाता रहा |

एक मोड़ पर अचानक मिला अजनबी, होठों पे उसकी एक मुस्कान थी |
उसने देखा मुझे कुछ अपनों की तरह, वर्षों से ज्यों उससे पहचान थी |

अब तो सारा समां बस सजग हो उठा, बहारें खिजां पे अब लदने लगी |
मेरा सूना डगर खिलखिलाने लगा, सफ़र की लगन अब बदलने लगी |

चले आने से संग में उस अनजाने के, कांटें भी तो फूल बनने लगे |
जहाँ कष्टों की ही पूरी भरमार थी, वहां सुख के नए फूल खिलने लगे |

उस अनजाने ने किया मुझसे ये वादा, कि मंजिल तक तेरे चलूँगा मैं भी |
मैंने सोचा सफ़र में चलो कोई साथी मिला, मुश्किल न होगा अब मुश्किल डगर भी |

एक दोराहे पे तभी उसने अचानक, राह अपनी बदल, भूल वादा गया |
मैंने पूछा तो उसने बस इतना कहा, सॉरी, एक मजबूरी से सामना हो गया |

मैं हंसा, पर हंसी में भी संताप था, उसको जाते हुए देखता रह गया |
न विश्वास हो एक अनजाने पर, कभी आगे, ऐसा सोचता रह गया |

दिलासा दिया खुद को है यह नियम, यहाँ मिलना-बिछुड़ना लगा रहता है |
जीवन सफ़र में कई अजनबी का, ये आना-जाना लगा रहता है |

अकेले बस चलने कि आदत ही हो, बात इससे बड़ी कुछ न हो सकती है |
पर अनजाने पे टूक भरोसा न हो, अपनी ऐसी भी आदत न हो सकती है |

विज्ञान

कलियुग को कलयुग है इसने बनाया, पुरे धरा पर बन बादल ये छाया |
आसान हुआ अब हरेक काम अपना, वह विज्ञान है जिसने सबकुछ रचाया |

मानव के मस्तिष्क की है यह उपज, छोड़ पैदल हमे उड़ना है सिखाया |
दबाव बटन काम हो जाये पूरा, वह विज्ञान है जिसने समय बचाया |

विद्युत् बनाकर किया स्वप्न पूरा, निशा को भी इसने दिवा है बनाया |
विकसित किये कई उद्योग धंधे, वह विज्ञान है जिसने पोषण कराया |

देवों की हस्ती कहाँ खो गयी अब? दुनिया में छाई अब इसकी ही माया |
धरती के भीतर छिपे भेद लाखों, वह विज्ञान है जिसने हल कर दिखाया |

संग फूलों के जैसे होते हैं कांटें, वैसे ही इसने विध्वंस भी कराया |
एटम बम जैसे कई शस्त्र रचकर, वह विज्ञान है जिसने संकट बढाया |

मशीनीकरण हुआ हर जगह अब, चल था जो कल, उसे निष्चल बनाया |
जीवन अनिश्चित हुआ संकटों से, वह विज्ञान है जिसमे अंत भी समाया |

यह विज्ञान क्या है ? एक तलवार है, जिसने दोनों तरफ एक-सा धार पाया |
रक्षा करो अपनी या खुद को काटो, यह उपयोग पर इसके निर्भर हो आया |
वह विज्ञान है जिसमे सबकुछ समाया |

( यह कविता भी मैंने स्कूल के समय ही लिखी थी )

कलम

(यह मेरी पहली कविता है | यह मैंने तब लिखी थी जब मैं आठवीं कक्षा में था| )

कलम शान है हम बच्चों की, छात्रों का हथियार है,
यही कलम दिलवाता सबको, सारा अधिकार है |

है कलम छोटा शस्त्र, पर इसकी शक्ति अपार है,
बड़े-बड़े वीर आगे इसके बन जाते चिड़ीमार हैं |

इसके बल पर मिट सकता जो फैला अनाचार है,
हरेक देश की गरिमा है यह, सबका जीवन सार है |

दीखता है छोटा लेकिन यह शिक्षा का भंडार है,
कलम से तुलना करने पर छोटा पड़ता तलवार है |

मान बचाने को कलम की, हम बिलकुल तैयार हैं,
इससे नाता जोड़ ले प्यारे हो सकता उद्धार है |

Monday, January 3, 2011

नए साल में

( सभी पंक्तियों का पहला अक्षर मिलाने पर "नया साल सबके लिए सुखद एवं मंगलमय हो" )

वरंग सी उमंग लिए,
या आसमान के जैसे खुले विचार;
सागर से भी गहरी सोच या,
श्कर लिए ख़ुशी का, गम दरकिनार|

रस कर इन चार लम्हों को,
रसती सावन की बूंदों का झार;
केंद्र में लिए लक्ष्य को अपने,
लिख दे हर दिल में बस प्यार ही प्यार|

क अकेला चल पथ में,
सुप्त पड़ जाये गर ये संसार;
बर दे सबको बस खुशियों भरा,
वा बन सबका, लगा दे पार|

कल व्यक्तित्व गर ढह भी जाये,
वंदन और पूजन न हो तार-तार;
मंगल पथ में कर मगल कर्म,
र आ भी जाये दुखते आसार|

य पर सीधा चलते चल,
र्म तब जानेगा जीवन के चार;
ह मान ले पथ में सिर्फ कांटें नहीं हैं,
होगा भला करले भला अपार|

Monday, December 13, 2010

कॉलेज के वो चार दिन

आज कभी जब तन्हाई में आँखें बंद मैं करता हूँ;
याद तो बरबस आ जाते हैं कॉलेज के वो चार दिन|

आधी बनी सी वो बिल्डिंग,ठक-ठक करती वो आवाजें;
नये-नवेले वो अगणित चेहरे,बनती बिगड़ती जज्बाते|

पूरा सेमेस्टर मस्ती करना,लास्ट मोमेंट की रतजग्गी;
रिजल्ट के दिन वो छटपटाना,दिल में उठती अगलग्गी|

कॉलेज जाके बंकिग करना,केंटिन में वो गपबाजी;
ईंट्रो देना ईंट्रो लेना,कभी-कभी वो रँगबाजी|

ग्रुप बना के घुमना फिरना,ग्रुप में जाना परवाना;
आँख में आँसू ला देते हैं,कॉलेज के वो चार दिन|

कभी-कभी वो नारेबाजी,बात-बात पे वो हड़ताल;
कभी-कभी वो सिर फुटोव्वल,पुलिस वालों की वो पड़ताल|

कमरे में वो रात का जगना,ताश के पत्तों का बिखराव;
कम्प्यूटर के वो गेम का लत,एक दूजे का रख-रखाव|

फोन पे घन्टों बातें करना,सबकी करना टाँग खिंचाई;
हरपल को महका जातें हैं,कॉलेज के वो चार दिन|

ऑफ केम्पस के हसीन से सफर,फंक्शन का वो डाँस कराना;
चाय दुकान पे हो-हल्ला और रेस्त्राँ में बर्थ डे मनाना|

आज कहाँ अब किसको फुरसत और कहाँ अब अपनी किस्मत;
कॉलेज के वो लम्हें तो बस यादों में ही सिमटे हैं|

याद कर उनको आँख छलकती,दिल भी तो भर जाता है;
जेहन में हरवक्त जियेंगे,कॉलेज के वो चार दिन|

Saturday, September 4, 2010

मैं

दोस्तों की दोस्ती, यारों का यार भी हूँ,
दिल से चाहने वाले का प्यार भी हूँ,
हर शख्स, हर अक्स मेरी नज़रों में है,
आँखों की नमी, होठों की हंसी, और सपनों का चौकीदार भी हूँ |

इस जहाँ में करोड़ों में एक आशियाँ मेरा भी है,
सबके बीच इस जहाँ में एक जहाँ मेरा भी है;
मेरे भी कुछ सपने हैं, मेरे भी कुछ अपने हैं,
रंग बिरंगे गुलशन में एक गुलिश्तां मेरा भी है |

Thursday, September 2, 2010

अरे ओ यारों, थोडा समय तो निकालो

अरे ओ यारों, थोडा समय तो निकालो,
चार दिन की है अपनी ये जिंदगी,
दोस्तों को भी याद करो अरे ओ काम वालों,
अरे ओ यारों! थोडा समय तो निकालो |

व्यस्त हैं सब, इससे इनकार कब है,
काम का है बोझ, खुशियाँ साकार कब है,
व्यस्तता में से कुछ छन हंसी के निकालो,
अरे ओ यारों! थोडा समय तो निकालो |

अपनी अपनी जिंदगी में हर कोई है खोया,
दूसरों के दुःख में कोई एक आंसूं न रोया,
दो पल का साथ किसी और से निभालो,
अरे ओ यारों! थोडा समय तो निकालो |

दोस्तों की दोस्ती सब भूल ही गए,
काम के नशें में सब खो ही गए,
कमबख्तों!!दोस्ती की लाज थोड़ी-सी उठा लो,
अरे ओ यारों! थोडा समय तो निकालो |

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धन्यवाद ज्ञापन

"मेरा काव्य-पिटारा" ब्लॉग में आयें और मेरी कविताओं को पढ़ें |

आपसे निवेदन है कि जो भी आपकी इच्छा हो आप टिप्पणी के रूप में बतायें |

यह बताएं कि आपको मेरी कवितायेँ कैसी लगी और अगर आपको कोई त्रुटी नजर आती है तो वो भी अवश्य बतायें |

आपकी कोई भी राय मेरे लिए महत्वपूर्ण होगा |

मेरे ब्लॉग पे आने के लिए आपका धन्यवाद |

-प्रदीप