मेरे साथी:-

Friday, January 7, 2011

आशातीत

तेज हवा के झोंको में बैठा, जब पत्तियों को इनके साथ उड़ते देखता हूँ;
सोचता हूँ काश !
पत्तियों की तरह हवा के साथ मैं भी उड़ पाता |

चांदनी रात में खामोश बैठा, जब धरती को रौशनी में नहाये देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
ऐसी ही धवल उज्ज्वलता मैं भी सबको दे पाता |

राहों में जब चलते-चलते वृक्षों को मदमस्त हो लहराते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
सभी ग़मों को भूल ख़ुशी में, मैं भी ऐसे ही लहरा पाता |

राह के अँधेरे में जब आसमान में तारों को टिमटिमाते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
इस बोझिल जिंदगी का चोला उतार, मैं भी आसमान में टिमटिमा पाता |

सोती-जागती आँखों से जब, कई सुनहरे और चल सपने देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
सपनों कि मानिंद जिंदगी को भी, ऐसे ही साकार कर पाता |

नज़रों के सामने झुरमुठों में, पक्षियों को जब किलोलें करते देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
अपना भी जीवन इनकी तरह, चंद लम्हों का खुशियों से भरा हो पाता |

निर्जीव-सा पड़ा हुआ, आँखों को मूँद सुन्या में देखता हूँ,
सोचता हूँ काश !
खुद में भी ऐसी शक्ति होती कि आशातीत कि आशा कभी न कर पाता |

वो आँखें

वो आँखें झील की जैसी, प्यार ही प्यार है जिसमे,
अपनत्व की उमड़ती धारा, उसमे ही तकदीर नज़र आती है |

भोली-भाली सी आँखें, बोझिल होती सपनो के भार से,
प्यार के जल की छलक जिसमे, उसमे ही तस्वीर नज़र आती है |

आकान्छाओं से भरी वो आँखें, लेकर तमन्नाओ का सागर,
चाहत पूरा करने की जिसमे, उसमे कल्पना की ज़ंजीर नज़र आती है |

मोतियाँ ढ़ोती वो भीगी आँखें, कुछ कहने को उतावली-सी,
दिल की बातों का पुलिंदा लिए, उसमे इशारों की तफ़सीर नज़र आती है |

खुलती बंद होती सी पलकें, होठों की मुस्कराहट को समेटे,
खुशियों को पाकर खुश होती, उसमे अपनों की तहरीर नज़र आती है |

जीवन रस से भरी आँखें, देखकर ही जिसे जीवन मिल जाये,
जीने की चाहत-सी जगाती, उसके बिना जिंदगी गैरहाज़िर नज़र आती है |

आधुनिकता

आधुनिक बनने कि होड़ में, भूल गए हम नैतिक मूल्यों को ;
पूरखों से आ रही शिक्षा को, भूल गए हम शिष्टता और मानवता को |

चाहा था जिसे पूर्वजों ने कभी, पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता ही जाये ;
अफ़सोस ! न समझे, हम नासमझ, लात मारी किया दूर उन रत्नों को |

रहने का ढंग, बोलने का चलन, पहनावा आदि कई जीवन के रंग ;
बद से भी बदतर हुए जा रहे, फिर भी है न होश हम अनजानों को |

गीता के मर्म भी हमे दिखते नहीं, राम-जीवन का गुढ़ भी नहीं है पता ;
दुनिया संग हम भी चकाचौंध के मारे, क्या हो रहा है ये खबर किसको ?

छाता है बादल आसमान पर भी, पर रहता नहीं वह सदा के लिए ;
पर आधुनिकता जो छाया है हम पर, बड़ा मुश्किल हटाना है इस बादल को |

कल तक जिसे थे अनैतिक समझते, उसको भी इसने जायज कर दिया ;
कुछ भी करते हैं नाम इसका लेकर, ताक में रख कर अपनी संस्कृति को |

चादर को ओढ़ आधुनिकता की, अंधों की दौड़ में दौड़े जा रहे ;
खड्ड में जा गिरे या हो अपना पतन, भाई मोडर्न हैं ! रोको मत हम दीवानों को |

मोडर्न ! मोडर्न ! सब चीखे जा रहे, मृगतृष्णा के पीछे चले जा रहे ;
पर अब तक किसी ने भी देखा नहीं, क्या खो रहे हम और इसकी कीमत को |

अजनबी

सफ़र पर न जाने था कब से अकेला, चारों तरफ बस वीराना ही था |
पल-पल बिताना भी था अति दुष्कर, फिर भी मैं मंजिल को भूला न था |

मंजिल को पाने की चाहत में मैं, काँटों के पथ पे भी चलता रहा |
सपनो को अपने संजोये हुए, कदम दर कदम मैं बढ़ाता रहा |

एक मोड़ पर अचानक मिला अजनबी, होठों पे उसकी एक मुस्कान थी |
उसने देखा मुझे कुछ अपनों की तरह, वर्षों से ज्यों उससे पहचान थी |

अब तो सारा समां बस सजग हो उठा, बहारें खिजां पे अब लदने लगी |
मेरा सूना डगर खिलखिलाने लगा, सफ़र की लगन अब बदलने लगी |

चले आने से संग में उस अनजाने के, कांटें भी तो फूल बनने लगे |
जहाँ कष्टों की ही पूरी भरमार थी, वहां सुख के नए फूल खिलने लगे |

उस अनजाने ने किया मुझसे ये वादा, कि मंजिल तक तेरे चलूँगा मैं भी |
मैंने सोचा सफ़र में चलो कोई साथी मिला, मुश्किल न होगा अब मुश्किल डगर भी |

एक दोराहे पे तभी उसने अचानक, राह अपनी बदल, भूल वादा गया |
मैंने पूछा तो उसने बस इतना कहा, सॉरी, एक मजबूरी से सामना हो गया |

मैं हंसा, पर हंसी में भी संताप था, उसको जाते हुए देखता रह गया |
न विश्वास हो एक अनजाने पर, कभी आगे, ऐसा सोचता रह गया |

दिलासा दिया खुद को है यह नियम, यहाँ मिलना-बिछुड़ना लगा रहता है |
जीवन सफ़र में कई अजनबी का, ये आना-जाना लगा रहता है |

अकेले बस चलने कि आदत ही हो, बात इससे बड़ी कुछ न हो सकती है |
पर अनजाने पे टूक भरोसा न हो, अपनी ऐसी भी आदत न हो सकती है |

विज्ञान

कलियुग को कलयुग है इसने बनाया, पुरे धरा पर बन बादल ये छाया |
आसान हुआ अब हरेक काम अपना, वह विज्ञान है जिसने सबकुछ रचाया |

मानव के मस्तिष्क की है यह उपज, छोड़ पैदल हमे उड़ना है सिखाया |
दबाव बटन काम हो जाये पूरा, वह विज्ञान है जिसने समय बचाया |

विद्युत् बनाकर किया स्वप्न पूरा, निशा को भी इसने दिवा है बनाया |
विकसित किये कई उद्योग धंधे, वह विज्ञान है जिसने पोषण कराया |

देवों की हस्ती कहाँ खो गयी अब? दुनिया में छाई अब इसकी ही माया |
धरती के भीतर छिपे भेद लाखों, वह विज्ञान है जिसने हल कर दिखाया |

संग फूलों के जैसे होते हैं कांटें, वैसे ही इसने विध्वंस भी कराया |
एटम बम जैसे कई शस्त्र रचकर, वह विज्ञान है जिसने संकट बढाया |

मशीनीकरण हुआ हर जगह अब, चल था जो कल, उसे निष्चल बनाया |
जीवन अनिश्चित हुआ संकटों से, वह विज्ञान है जिसमे अंत भी समाया |

यह विज्ञान क्या है ? एक तलवार है, जिसने दोनों तरफ एक-सा धार पाया |
रक्षा करो अपनी या खुद को काटो, यह उपयोग पर इसके निर्भर हो आया |
वह विज्ञान है जिसमे सबकुछ समाया |

( यह कविता भी मैंने स्कूल के समय ही लिखी थी )

हिंदी में लिखिए:

संपर्क करें:-->

E-mail Id:
pradip_kumar110@yahoo.com

Mobile number:
09006757417

धन्यवाद ज्ञापन

"मेरा काव्य-पिटारा" ब्लॉग में आयें और मेरी कविताओं को पढ़ें |

आपसे निवेदन है कि जो भी आपकी इच्छा हो आप टिप्पणी के रूप में बतायें |

यह बताएं कि आपको मेरी कवितायेँ कैसी लगी और अगर आपको कोई त्रुटी नजर आती है तो वो भी अवश्य बतायें |

आपकी कोई भी राय मेरे लिए महत्वपूर्ण होगा |

मेरे ब्लॉग पे आने के लिए आपका धन्यवाद |

-प्रदीप