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Friday, February 11, 2011

प्रेमोत्सव या प्रेम का व्यापार

आज सुबह समाचार पत्र पर अचानक से नजर पड़ी,
"वेलेनटाईन डे की तैयारी" शीर्षक कुछ अटपटा सा लगा।
हृदय मे कुछ दुविधा उठी,
मन ही मन मै सोचने लगा|

वेलेनटाईन डे के नाम पर ये क्या हो रहा है?
कई फायदा उठा रहे है कईयों का कारोबार चल रहा है।
एक खाश दिन को प्रमोत्सव पता नहीं किसने चुना,
प्रेम अब हृदय से निकल के बाजार मे आ गया है।
व्यापारीकरण के दौर मे प्यार भी व्यापार हो गया है।
ग्रिटिंग्स कार्ड, बेहतरीन गिफ्ट्स, यहाँ तक की फूलो के भी दाम है
हर चीज अब खाश है बस प्रेम ही आम है।

कुछ इसे मनाने की जिद मे अड़ते रहते है,
कुछ संस्कृति के नाम पे इसे रोकने को लड़ते रहते है।
पर सोचने वाली बात है कि सच्चा प्रेम है कहाँ पे?
पार्क में घुमना, होटल में खाना प्रेम का ही क्या रूप है?
भेड़ों की चाल में शामिल हो जाना ही जिन्दगी है तो,
ऐसी जिन्दगी में सोचने की जगह ही कहाँ है?

अगर सच्चा प्रेम है तो क्या उसका कोई खाश दिन भी होता है?
हर दिन क्या प्रेम के नाम नहीं हो सकता?
क्या मानव होकर हर दिन हम मानव से प्यार नहीं कर सकते?
हर दिन किसी  से या देश से प्यार का इजहार नहीं कर सकते?
जो भी हो पर मष्तिष्क की स्थिति यथावत ही है,
मतिभ्रम है और ना थोड़ी सी राहत ही है।
पर किसी न किसी को तो सोचना ही होगा,
आगे आके गलतियों को रोकना ही होगा|
मष्तिष्क मे आया कि जेहन मे ये ना ही आता तो अच्छा था।

6 comments:

  1. tumhara ye valentine's day par kavita hamein bahut hi pasand aaya....kyunki ish kavita main bahut saare andar ki sachi baatein chupi hui hain.....Great job .....dear.Keep it up!!!!!!!!!

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  2. पंक्ति पसंद आई

    " हर चीज अब खास है बस प्रेम ही आम है।"

    प्रदीप जी कहीं कहीं कविता लय से भटकती है..मगर थोड़े प्रयास से और भी आकर्षक हो जाएगी..उम्मीद है आप अन्यथा नहीं लेंगे..

    एक अच्छे विषय पर कविता लिखी आप ने...बधाइयाँ..
    उम्मीद करता हूँ आगे भी आप की कवितायेँ मिलती रहेंगी

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  3. आशुतोष जी की बात से मैं सहमत हूं। कहीं कहीं आप भटके हुए लगे लेकिन आपने अच्‍छा विषय उठाया। मौजूदा दौर में प्रेम भी व्‍यापार हो गया है। इस पर मंथन करने की जरूरत है। आपकी रचना इस समय प्रासंगिक है।

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  4. कुछ लोग अंदर से अंग्रेज हैं इसका मतलब साफ वहा बीज बदला हैं ..

    अनिल अत्री ...............

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